Saturday, June 29, 2013

टेलीवीजन पत्रकारिताः संदर्भ एस पी सिंह

                                                                                                               

                                                                                                जितेन्द्र कुमार

अपनी बात शुरू करने से पहले एक कहानी। बात उन दिनों की है जब दिल्ली में मेट्रो रेल शुरू ही हुई थी। मेरे एक मित्र मेट्रो से घर जा रहे थे। उन्हें कश्मीरी गेट पर मेट्रो का टिकट खरीदना था। उन्होंने टिकट खरीदते समय 50 रुपए का नोट दिया। टिकट लेते समय ही ट्रेन आ गई और वे हड़बड़ी में मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो में बैठने के बाद उनको याद आया कि अरे, बकाया पैसे तो उन्हें मिले ही नहीं। अगले स्टेशन पर उतर कर उन्होंने इस बात की शिकायत ‘शिकायत कक्ष’ में की। थोड़ी देर पूछताछ और दरियाफ्त करने के बाद यह पाया गया कि सचमुच उनके पैसे वहीं रह गए हैं, अतः वे आकर अपने बचे हुए पैसे ले जाएं। खैर, अगले दिन सवेरे उनसे मिलना था लेकिन उन्होंने फोन करके मुझसे आग्रह किया कि दोपहर के बाद मिलने का कार्यक्रम रखा जाए। जब हम मिले तो उन्होंने बताया कि वह कल वाली घटना की शिकायत मेट्रो प्रमुख सहित इससे जुड़े देश के तमाम लोगों से कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि जब आपको पैसे मिल गए हैं तो फिर शिकायत किस बात की कर रहे थे? इस पर उनका जवाब था- ''देखिए, मेट्रो अभी बनने की प्रक्रिया में है, अभी जो भी खामियां हैं, अगर नीति-निर्माता और इसके कर्ता-धर्ता ईमानदारी पूर्वक चाहें तो वे खामियां दूर की जा सकती है। मैंने उन्हें सुझाव दिया है कि दिल्ली मेट्रो को ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जिसमें यात्रियों को टिकट (टोकन) के साथ ही बचे हुए पैसे वापस कर दिए जाएं।'' और थोड़े दिनों के बाद ही मेट्रो में यह व्यवस्था बन गई कि टोकन के साथ ही पैसे भी वापस किए जाने लगे।
टीवी पत्रकारिता के शिखर पुरुष: पंद्रह साल में फर्श पर आई विरासत

बात उन दिनों की है जब भारत में टेलीविज़न पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी- वर्ष 1993/94/95, एस.पी. सिंह (सुरेन्द्र प्रताप सिंह) कोलकाता से निकलने वाले अंग्रेजी दैनिक ‘द टेलीग्राफ’ के राजनीतिक संपादक से उठाकर ‘आजतक’ (तब तक यह चैनल नहीं बना था, दूरदर्शन पर सिर्फ एक समाचार का कार्यक्रम था) के प्रमुख ‘बना दिए’ गए थे। (‘बना दिए गए थे' का जुमला एस.पी. का था। उनका कहना था कि वह इसके लिए तैयार नहीं थे, बस ए.पी. यानी अरुण पुरी ने जबरदस्‍ती उन्हें वीपी हाउस के लॉन से कंपीटेंट हाउस में लाकर बैठा दिया था)। इस प्रोग्राम के लिए स्लॉट तो मिल गया था लेकिन कार्यक्रम अभी तक शुरू नहीं हुआ था। ढेर सारे बेहतरीन प्रोफेशनल और सामाजिक सरोकार रखने वाले पत्रकार (एस.पी. के ‘सरोकार’ को ध्यान में रखकर) उनसे नौकरी मांगने और वैसे ही मिलने के लिए आते-जाते रहते थे। इन्‍हीं दोनों सिलसिले में मैं भी उनसे मिलता रहता था (हालांकि हमारी जान-पहचान 1992 से थी जब तथाकथित ‘राष्ट्रवादियों’ द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश के हजारों संवेदनशील लोगों का समूह सड़कों पर उतर आया था और हम लोग सीलमपुर के दंगा प्रभावित क्षेत्र में काम कर रहे थे)। यह एस.पी. के जीवन का वह दौर था जब वे प्रिंट मीडिया में अपना परचम फहराकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पांव रख रहे थे। इसी बीच दूरदर्शन पर ‘आजतक’ शुरू हो गया और वह कार्यक्रम धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा। जानने वालों के लिए एस.पी. और आम लोगों के लिए एस.पी. सिंह अपने पत्रकारीय जीवन के शिखर पर विराजमान हो गए।

जिस रफ्तार से ‘आजतक’ ‘सफल’ हो रहा था उसी तेजी से एस.पी. से मिलने वालों की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी, लेकिन वह भीड़ सामाजिक सरोकार व चाहने वालों की ही नहीं थी बल्कि टीवी पर दिखने वाले उस ‘सफल’ पत्रकार की थी जिसने ‘खबरों’ को ‘बिकाऊ’ बना दिया था। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि मिलने वालों के साथ-साथ नौकरी मांगने वालों की भीड़ भी उसी अनुपात में बढ़ रही थी। ‘आजतक’ की ‘सफलता’ के साथ-साथ लोगों को रोजगार भी मिल रहे थे और टेलीविज़न में अधिकांश रोजगार देने वाले एस.पी. ही थे।

इसी बीच एस.पी. के चाहने वाले एक सज्जन से मेरी मुलाकात ‘आजतक’ के पहले वाले दफ्तर कनॉट प्लेस में ‘कंपीटेंट हाउस’ की सीढ़ी पर हुई। ये वह सज्जन थे जिनके बारे में एस.पी. का कहना था कि उत्तर भारत की वर्तमान राजनीति पर इससे बेहतर समझ वाला व्यक्ति उन्हें नहीं मिला है। मैं ऊपर न जाकर उनके साथ ही नीचे उतर आया। इधर आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वह किसी की सिफारिश लेकर आए थे लेकिन एस.पी. ने साफ-साफ कह दिया कि टेलीविज़न पत्रकारिता में पढ़े व समझदार लोगों की ज़रूरत नहीं है। अगर वह चाहते हैं तो वह उनके वार्ड को किसी अखबार में रखवा सकते हैं। उसके बाद मैं जब भी एस.पी. से मिलने जाता, यह जानने की कोशिश करता कि वे पढ़े-लिखे व समझदार लोगों से इतना परहेज़ क्यों करते हैं, जबकि खुद वे पढ़े-लिखे व समझदार व्यक्ति माने जाते थे? अंत में बहुत झिझक के बाद एक बार मैंने उनसे पूछ ही लिया कि आप पढ़े-लिखे और समझदार लोगों से इतना परहेज़ क्यों करते हैं? इस पर उनका जवाब था- ‘वे प्रश्न बहुत पूछते हैं। इसलिए मैं मूर्ख-मूर्खाओं (मूर्खाओं का तात्पर्य बेवकूफ़ लड़कियों से था) को रखता हूं और उनसे जो भी काम कहता हूं वे तत्काल करके ला देते हैं।’

एक बार मैं एस.पी. से मिलने गया था और अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। जब मैं उनके केबिन में दाखिल हुआ तो वे काफी गुस्से में थे। मुझे देखते ही झल्लाकर बोलने लगे- ''अभी जो सज्जन निकले हैं उन्हें नौकरी चाहिए! अब बताओ भला, इस विजुअल मीडिया में खादी पहनकर थोड़े न काम होगा! यू हैव टु बी स्मार्ट, सुंदर दिखना पड़ेगा!'' एस.पी. उस समय इतने चिढ़े हुए थे कि उन्हें यह भी ध्यान नहीं था कि वे जिस व्यक्ति से यह बात कर रहे हैं वह खुद खादी पहने हुआ है और गाहे-बगाहे उनसे अपनी नौकरी की बात करता रहा है (यह संयोग है कि उस दिन मैंने उनसे इस संदर्भ में यह बात नहीं की थी)। इतने वर्षों के बाद जाकर उनकी बातों का अर्थ अब समझ में आने लगा है।

आज टेलीविज़न पत्रकारिता बाजार में ताल ठोककर खड़ी है, समाचार पहले से ज्यादा बिकाऊ है, न्यूज़ से करोड़ों की कमाई हो रही है और सैकड़ों लोगों को इस ‘इंडस्ट्री’ में रोजगार मिला है, तब यह प्रश्न उठता है कि बहस किस बात को लेकर हो? इसलिए एस.पी. आज बहस के केन्द्र में हैं, गुज़रने के दस वर्ष के बाद भी।

इसे कहते हैं एस.पी. सिंह स्‍कूल ऑफ जर्नलिज्‍म आखिर 
 एस.पी. को प्रश्न पूछने वालों या खादी पहनने वालों से इतना परहेज़ क्यों था? क्या इसे एक ‘ट्रेंड’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है? या इसका कोई वैचारिक धरातल भी है? इन सब बातों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। जिस समय एस.पी. हिन्दुस्तान में टेलीविज़न पत्रकारिता की ज़मीन तैयार कर रहे थे, वे बहुत अच्छी तरह जानते थे कि आने वाले दिनों में आज के ‘ट्रेंड’ का ही अनुसरण किया जाएगा। इसलिए वे पत्रकारों की ऐसी पीढ़ी तैयार करना चाह रहे थे जो पूरी तरह बाजारोन्मुखी हो और बाजार के सामने कोई भी समझौता करने को तैयार हो (व्यक्तिगत जीवन में वह खुद उदारीकरण के बड़े पैरोकार और समर्थक थे)। उन्हें पता था कि यह काम सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध और पढ़े-लिखे पत्रकारों से वह नहीं करवा सकते थे, क्योंकि समझदार पत्रकार उनसे कई तरह के प्रश्न पूछ सकते थे। निश्चय ही जब वे उनसे प्रश्न पूछते तो सवाल व्यक्तिगत तो नहीं ही होते बल्कि समाज की चिंता से जुड़ी बातें ही वे पूछ रहे होते जिसमें उदारीकरण, बाजार, सामाजिक दुर्दशा और सामाजिक सरोकार से जुड़े न जाने कितने अन्‍य प्रश्न होते और यहीं पर एस.पी. अपने को असहज महसूस करते। कल्पना कीजिए कि एस.पी. ने सामाजिक सरोकार से जुड़े सभी काबिल पत्रकारों को नौकरी पर रख लिया होता और वे मीडिया में महत्वपूर्ण पदों पर होते तो क्या बाजार उन्हें उसी तरह अपनी जद में ले पाता जैसा कि एस.पी. के बनाए ‘बड़े-बड़े महारथी पत्रकारों’ को अपनी जद में उसने ले लिया है? शायद एस.पी. का यही ‘विज़न’ था जो उन्हें एक साथ सामाजिक सरोकार का पुरोधा भी बनाता था और बाजार का प्रबल समर्थक भी!

दूसरी बात उनकी खादी पहनने वालों से चिढ़ने की है। उस वक्त मैं सोचता था कि आज अगर गांधी या लोहिया होते तो क्या एस.पी. उनसे भी उतना ही चिढ़ते! लेकिन धीरे-धीरे मेरी इस सोच में बदलाव आया और मैंने जाना कि वह उन्‍हीं प्रतिबद्ध, ग्रामीण, गरीब और मजबूर खादी पहनने वालों से चिढ़ते हैं जो उनसे कुछ मांगने (रोजगार, पैसे नहीं) आते हैं। जो उनसे कुछ मांगने नहीं आता था बल्कि प्रतिबद्धता के साथ-साथ शौक से भी खादी पहनता था उनकी वे इज्जत ही करते थे। इसका एक उदाहरण योगेन्द्र यादव हैं।

तीसरी बात, जब प्रतिबद्ध और सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार टेलीविज़न मीडिया में होते तो आज की स्थिति कैसी होती, यह एक बार फिर काल्पनिक प्रश्न है। लेकिन अगर सचमुच ऐसा हुआ होता तो क्या इस बात को कोई भी इस विश्वास के साथ कह पाता कि टेलीविज़न पत्रकारिता में एकमात्र प्रतिबद्ध व्यक्ति एस.पी. सिंह ही हुए!

एस.पी. सिंह के पत्रकारीय जीवन को देखा जाय तो आपको एक भी ऐसा व्यक्ति नज़र नहीं आएगा जो सीधे तौर पर सामाजिक सरोकार से जुड़ा रहा हो या फिर एस.पी. ने किसी प्रतिबद्ध पत्रकार की व्यावसायिक जीवन में किसी तरह की मदद की हो। वे हमेशा ऐसे लोगों को ही प्रश्रय देते और प्रोत्साहित करते रहे जो पूरी तरह मूढ़ और सामाजिक सरोकारों से बिल्कुल कटे हुए थे। उदाहरण के लिए ‘आजतक’ में एस.पी. ने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी दी थी जो वहां काम करने वालों में सबसे अधिक संवेदनशील और राजनीतिक समझदारी वाले थे लेकिन उन्हें टेलीप्रिंटर पर टिकर देखने का काम दिया गया था जिसे वह एस.पी. निधन के बाद भी करते रहे और यह काम उन्होंने तकरीबन सात वर्षों तक किया। लेकिन एस.पी. ने उन्हें कभी रिपोर्टिंग के लिए नहीं भेजा।

इसी तरह उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी दी जिनके बारे में मशहूर है कि वह ‘बिकनी किलर’ चार्ल्स शोभराज का इंटरव्यू करने के लिए छोटा- मोटा अपराध कर के गोवा की जेल में चला गया जहां शोभराज को कैद करके रखा गया था और वहां से उसने शोभराज का इंटरव्यू किया। यह एक अलग तरह की पत्रकारिता हो सकती है और इसे शायद पत्रकारीय सरोकार ही कहा जाना चाहिए। लेकिन चार्ल्‍स शोभराज को तिहाड़ जेल से भगाने में मदद करना (आईबी की रिपोर्ट में यह बात दर्ज है) सिर्फ अपराध ही है। लेकिन एस.पी. ने उस व्यक्ति को इतना अधिक प्रश्रय दिया कि वह आज हिंदी के बड़े चैनल का प्रमुख बना हुआ है। दुखद ये है कि एस.पी. के पास ऐसे पत्रकारों की लंबी सूची थी जिन्‍हें वे बड़ा पत्रकार मानते थे और उन सबके साथ ‘मिलकर-जुलकर काम’ करते थे। बड़े पत्रकारों की सूची में प्रभु चावला सबसे ऊपर थे!
ऐसी विरासत पर दाग तो लगनी ही थी...

जब देश में टेलीविज़न पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी तो एस.पी. उसे दिशा दे सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसका कारण यह नहीं है कि उनमें यह करने का माद्दा नहीं था बल्कि इसका कारण यह है कि वह काफी ‘होशियार’ व्यक्ति थे और जो करना चाहते थे उसे कर लेते थे। ऐसा वह नवभारत टाइम्स में आंशिक रूप से ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को कमजोर करके दिखा चुके थे (यह अलग बात है कि उनके निधन के इतने वर्षों बाद हिन्दी पत्रकारिता एक बार फिर उसी ब्राह्मणवाद की गिरफ्त में आ गई है क्योंकि आज के दिन उस काट का कोई केन्द्र नहीं रह गया है)। इसे एस.पी. ने पत्रकारिता की दूसरी पारी में फिर से प्रमाणित करके दिखा दिया जब उन्होंने सारे मीडियॉकर लेकिन गैर-ब्राह्मणों को टेलीविज़न पत्रकारिता का ‘स्टार' बना दिया जो आज किसी न किसी रूप में देश के लगभग सभी हिन्दी चैनलों के कर्ता-धर्ता की हैसियत में हैं। लेकिन टेलीविज़न पत्रकारिता की कमान प्रगतिशील, समाजोन्मुख और प्रतिबद्ध पत्रकारों के हाथ में जाए यह उन्हें कतई गवारा नहीं था। उनकी ऐसी इच्छा ही नहीं थी कि पत्रकारिता की कमान कभी ऐसे लोगों के हाथ में आए। वे वैचारिक रूप से दूसरी पंक्ति के पत्रकारों के खिलाफ थे (पहली पंक्ति के तो खुद थे) जो शायद उन्होंने ‘मामुला’ (मायावती, मुलायम और लालू) से सीखी थी, जिसके वे बड़े प्रशंसक थे।

एस.पी. ने ‘समकालीन जनमत’ के पत्रकारिता विशेषांक में कृष्ण सिंह द्वारा किए गए साक्षात्कार में साफ-साफ पूछा था कि किसी को क्यों लगता है कि कोई सेठ क्रांति करने के लिए अखबार निकालेगा। उनका मानना था कि सेठ पैसा मुनाफा कमाने के लिए लगाता है। एस.पी. सिंह स्पष्ट तौर पर मानते थे कि अगर किसी को क्रांति करनी है तो पत्रकारिता करने की क्या जरूरत है! शायद एक सच यह भी है क्योंकि क्रांति और पत्रकारिता का क्या रिश्ता हो सकता है? लेकिन वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि प्रतिबद्धता के साथ पत्रकारिता करके समाज निर्माण में सकारात्मक सहयोग किया सकता है।

यह बात दीगर है कि एस.पी. ने अपना एक ‘स्कूल’ बना लिया था (एस.पी. सिंह स्कूल ऑफ जनर्लिज्म) और उनके अनुयायी आज टेलीविज़न पत्रकारिता में चारों ओर भरे पड़े हैं। उसी स्कूल ऑफ थॉट के सबसे बड़े पैरोकार वर्तमान में आजतक के संपादक हैं। अगर आप उनसे मिलने जाते हैं और जब वह खाली होते हैं तो दो-तीन मीटिंग के बाद यह बताना कतई नहीं भूलते हैं कि वे गांव के एक बहुत ही ‘मामूली’ (‘गरीब’ शब्द का प्रयोग वह एकदम नहीं करते हैं) परिवार से आए हैं जिसने अपनी जिंदगी की शुरुआत बनारस में होटल मैनेजरी से की है और ‘प्रतिभा की बदौलत’ इस मुकाम तक पहुंचे हैं। उनकी प्रतिभा क्या थी या है यह ज्यादातर लोग नहीं जानते, लेकिन वह भी एस.पी. की तरह खादी पहनने वालों से गहरे चिढ़ते हैं और ग्रामीण को गंवार समझते हैं। एस.पी. खादी पहनने वालों से चिढ़ते थे यह बात तो थोड़ी बहुत समझ में आती है (हालांकि यह समझ पूरी तरह गलत है) क्योंकि उनकी परवरिश गांव में नहीं बल्कि कलकत्ता के ‘भद्रलोकों’ के बीच हुई थी लेकिन वे तो गांव के हैं, फिर वे ऐसे लोगों से क्यों चिढ़ते हैं? क्या इस देश में उदारीकरण शुरू होने से पहले भी ‘लुई फिलिप’,’एलेन सॉली’, ‘कलरप्‍लस’,’वैन ह्यूजन’ या फिर ’फैब इंडिया’ जैसे मशहूर ब्रांड के कपड़े मिलते थे जिसे पहनने का संस्कार उनमें था?

दुष्यंत कुमार के कुछ शब्दों को अगर उधार लूं और कहूं कि “मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है”, तो मैं यह कहना चाहता हूं कि कृपया यहां एस.पी. को एक व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक ‘फेनोमेनन’ के रूप में देखें, जिनकी टेलीविज़न पत्रकारिता में जबरदस्त पैठ है और जिनके अनुयायी एम.जे. अकबर सहित देश के बड़े-बड़े पत्रकार हैं। वे जब कहीं भाषण देने जाते हैं तो बताते हैं कि आज पत्रकारिता में पढ़े-लिखे लोगों की कमी है और जब कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति वहां पहुंचता है तो खुद अकबर जैसे लोगों का जवाब होता है कि अब पत्रकारिता में पढ़े लिखे लोगों की जरूरत क्या है? तो लोगों को समझना पड़ेगा कि इस दुनिया को बनाने में उनके जैसे लोगों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है, और शायद इसे और आगे ले जाएं तो कह सकते हैं कि वे वही लोग हैं जिन्होंने पत्रकारिता खासकर हिन्दी पत्रकारिता को गर्त में पहुंचाया है और आज भी हम उनकी दुहाई देते फिर रहे हैं।

एस.पी. के ढेर सारे अनुयायियों के बारे में गौर कीजिएगा कि वे जब आपसे मिलेंगे तो यह बताना नहीं भूलते हैं कि अफसोस तो इस बात का है कि एस.पी. टेलीविज़न पत्रकारिता के आरंभ में ही गुज़र गए, नहीं तो इस पत्रकारिता की दशा-दिशा बदल गई होती। यह सुनकर मैं चुप्पी लगा जाता हूं क्योंकि वे उनकी राजनीति और उनके विरोधाभास को नहीं समझ पाते हैं। एस.पी. बाजार के बड़े समर्थक थे और सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी। सामान्यतया विद्वानों का कहना है कि बाजार, सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद तीनों एक साथ चलते हैं। अगर वे होते तो इतने वर्षों में पूरी तरह फल-फूल चुके बाजार, उदारीकरण और सांप्रदायिक पार्टी के सत्ता पर विराजमान हो जाने के बाद एस.पी. क्या करते? यह सोचकर मैं डर जाता हूं और दिमाग को सोचने से मना कर देता हूं। यह डर मेरा है... क्योंकि इससे किसी की प्रतिमा टूट सकती है।

(यह लेखहंस  के मीडिया विशेषांक के लिए लिखा गया था जो जनवरी 2007 में प्रकाशित हुआ, जिसके अतिथि संपादक अजीत अंजुम थे। किसी कारणवश इस लेख को छापने से मना कर दिया गया। इसकी मूल प्रति हंस के दफ्तर में ही कहीं खो गया था लेकिन इसका फोटोकॉपी कुछ ही दिन पहले पुराने कागजात में मिल गए। इसे बाद में अनिल चमड़िया के संपादकत्व में कथादेश  के मीडिया विशेषांक के लिए मांगा गया था लेकिन उस समय लेख उपलब्ध नहीं होने के कारण वहां नहीं छप सका।)

Sunday, June 16, 2013

‘धर्मनिरपेक्ष’ नीतीश की जय हो!

                                                                                                            जितेन्द्र कुमार


 
अंततः ढ़ोंग का रिश्ता टूट ही गया...साभार-इंटरनेट
अंततः सत्रह साल पुराने गठबंधन नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) से नीतीश कुमार ने अपना नाता तोड़ ही लिया। बात कोई छोटी नहीं थी, बात देश की धर्मनिरपेक्षता को बचाने की थी, जिसके लिए बड़े से बड़े नेता तैयार नहीं होते, नीतीश जी के जमीर ने उन्हें झकझोरा और उसे बचा लिया क्योंकि यह नीतीश की राजनीतिक प्रतिबद्धता थी।  इसी लिए तो नीतीश कुमार और उनके सहयोगी वर्षों से कहते रहे हैं कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार सेकुलर छवि का होना चाहिए।

इसका मतलब यह हुआ कि जब तक सांप्रदायिक व्यक्ति किसी राज्य का मुख्यमंत्री है, उन्हें कोई परेशानी नहीं हैं, उनके साथ गले मिला जा सकता है, उनकी तारीफ में कसीदे काढ़े जा सकते हैं, जरुरत पड़ने पर उनको भले आदमी का सर्टिफिकेट दिया जा सकता है, बस उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार नहीं घोषित किया जाना चाहिए। वैसे नीतीश के प्रतिबद्धता पर किसी तरह का प्रश्नचिन्ह उठाना अन्याय ही नहीं, अपराध कहा जा सकता है। क्योंकि अगर कोई व्यक्ति नीतीश को याद दिलाना चाहे कि वही नीतीश इन 17 वर्षों में 14 वर्षों तक (छह साल केंद्रीय मंत्री के रुप में और 8 साल मुख्यमंत्री के रुप में) उनके साथ सत्ता की मलाई खाते रहे हैं तो उनके सहयोगी और प्रशंसक उसे बीजेपी-संघ का दलाल तक कह सकते हैं।

ये वही नीतीश हैं जो गोधरा में यात्रियों को रेल कोच में जलाए जाने के बाद रेल मंत्री होते हुए भी अपने जुनियर मंत्री को मुआयना के लिए वहां भेजा था। गोधरा के बाद पूरी तैयारी के साथ जिस तरह राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मुसलमानों का जनसंहार हुआ, वह स्वतंत्र भारत की सबसे त्रासदीपूर्ण काल था, लेकिन तब नीतीश को उनसे कोई शिकायत नहीं थी। ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के जिम्मेवार भारतीय जनता पार्टी और उनके नेतागण खासकर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के साथ सत्ता सुख भोगने के लिए एनडीए बनाया था जो बाद में छ वर्षों तक केंद्रीय सत्ता में रही और जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे होते रहे। उसी समय प्रवीण तोगड़िया और अशोक सिंधल जैसे लोग पूरे देश में त्रिशूल बांटते रहे, जगह-जगह दंगे-फसाद करवाते रहे और नीतीश चुपचाप मंत्री का सुख भोगते रहे। उनकी नजर में उस समय न नरेन्द्र मोदी सांप्रदायिक थे और न ही बीजेपी सांप्रदायिक पार्टी थी।

अचानक किसी एक शख्स को निशाना बनाकर नीतीश सेकुलर नहीं बन सकते। अगर नरेन्द्र मोदी सांप्रदायिक है तो लालकृष्ण आडवाणी क्या हैं, क्या जिन्ना को उनके मजार पर जाकर सेकुलर कह देने से कोई व्यक्ति सेकुलर हो जाएगा। अगर आडवाणी सांप्रदायिक नहीं हैं तो फिर नीतीश को यह मानना ही पड़ेगा कि 1992 में बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना जायज है। इसलिए या तो भाजपा पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष पार्टी है, या फिर पूरी पार्टी सांप्रदायिक है। किसी पार्टी के भीतर आप यह नहीं कह सकते कि फलां सेकुलर है और फलां सांप्रदायिक या हम फलां के साथ जायेंगे और फलां के साथ नहीं जायेंगे।
इतना ही कॉमप्लेक्स व्यक्तित्व है दोनों का... साभारः इंटरनेट
ये कुछ सवाल है जिसपर नीतीश को सफाई देनी चाहिए। उन्हें यह बताना चाहिए कि वह पार्टी के रुप में भाजपा को सांप्रदायिक मानते हैं या सेकुलर? सच्चाई यह है कि वोटों की जुगाड़ में नीतीश यहां तक तर्क-कुतर्क गढ़ते हैं कि उसे नरेंद्र मोदी स्वीकार नहीं हैं लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री बनाने वाली, साथ खड़ी होने एवं शह देने वाली या गुजरात दंगों से थोड़ा पीछे लौटें तो बाबरी मस्जिद गिराने वाली पार्टी मंजूर है। क्या नीतीश यह मानते हैं कि बीजेपी नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाकर सांप्रदायिक हुई है और राम मंदिर आंदोलन, बाबरी मस्जिद विध्वंस या फिर गुजरात में दंगें कराकर सेकुलर बन गई थी? क्या नीतीश को यह भी बताने की जरूरत है कि भाजपा का तो जन्म ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गर्भ से हुआ है जो सिर्फ सांप्रदायिकता और नफरत की राजनीति करते हुए फली-फूली है।

लेकिन मामला इतना सहज नहीं बल्कि काफी पेचीदा है। नीतीश कुमार ने राज्य की जनता से जो भी वायदे किए थे उसका छोटा हिस्सा भी पूरा करने में नाकाम रहे हैं। वह लालू यादव का छाया बनकर उभरे हैं जो 15 वर्षों के अपने शासन काल की असफलता छिपाने के लिए जगन्नाथ मिश्रा को गाली देकर काम चलाते रहे। नीतीश पिछले आठ वर्षों से अधिक समय से लालू यादव को गाली देकर यही काम करते रहे हैं। अब जनता उनसे हिसाब मांगना शुरु कर चुकी है। महाराजगंज का चुनाव परिणाम इसका प्रमाण है। नीतीश को लगता है कि यही वह वक्त है जब नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाकर भारतीय राजनीति में जयप्रकाश नारायण (जेपी) या विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी) की जगह ले ली जाए। इसके लिए फेडरल फ्रंड बनाने की बात हो रही है जिसमें ममता बनर्जी और नवीन पटनायक तो रहेगें ही, नीतीश ने भी सहमति दे दी है। अगर ऐसा हो जाता है तो सचमुच उनकी चाल सफल मानी जाएगी।

लेकिन इसमें एक रोड़ा है। नीतीश ने अपने विधायकों और सांसदों को जितना जलील किया है उससे ज्यादातर विधायक-सांसद नीतीश से बहुत नाराज हैं। नौकरशाही बिहार में हावी है, भ्रष्टाचार अपने पीक पर है। विधायक की तो छोड़िए सांसदों के साथ बीडीओ ठीक से पेश नहीं आता है। अगर कोई व्यक्ति इस नाराजगी को हवा दे दे तो जनतादल यू में फूट सुनिश्चित है। पहले के दलबदल कानून के अनुसार जदयू को तोड़ने के लिए 40 विधायकों की जरूरत होती, लेकिन अब कानूनी रुप से इसकी संख्या 80 होनी चाहिए। हालांकि तकनीकि रुप से आधे से अगर एक भी अधिक विधायक हों तो पार्टी टूट सकती है। वैसे खबर तो यहां तक है कि उनके कम से कम 72 विधायक ऐसे हैं जो इस गठबंधन को तोड़े जाने के खिलाफ थे। अगर ऐसा हो गया तो नीतीश मुंह के बल गिरेगें। ऐसा होना भले ही मुश्किल हो लेकिन असंभव तो कतई नहीं है, क्योंकि शरद यादव बिहार में डटे हुए हैं। अगर नीतीश फेडरल मोर्चा के साथ जाते हैं तो उनके लिए बचा क्या रह जाएगा!  


Tuesday, June 11, 2013

इतिहास का दुहराव भी कितना अश्लील हो जाता है!

- जितेन्द्र कुमार
 
                                              

सोमवार को बाजार में दो हीं खबरें थीं। पहली खबर यह कि भाजपा के शीर्षपुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है और दूसरा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का इंतकाल हो गया है। हालांकि उसमें से सिर्फ एक ही खबर थी -लालकृष्ण आडवाणी का इस्तीफा, बांकी तो वाजपेयी जी के इंतकाल की खबर 2004 के बाद हर उस दिन उड़ती है जिस दिन संघ या भाजपा में कोई संकट होता है (खैर, इस पर चर्चा अलग से क्योंकि अफवाहों को अंजाम तक पहुंचाने का काम इससे जुड़े लोग कुछ इस अंदाज में करते हैं कि गणेश जी दूध तक पीने लगते हैं!)
लेकिन लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे की खबर सचमुच बहुत दिनों के बाद बड़ी राजनीतिक खबर थी जो सीधे तौर पर किसी तरह के घोटाले से नहीं जुड़ी हुई थी। आडवाणी का इस्तीफा एक ऐसे आदमी की पूरी कहानी है जिन्होंने घनघोर रूप से पुरातनपंथी, कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी भारतीय मन और आत्मा को उद्वेलित कर राजनीति के मुख्यधारा में सक्रिय करा दिया था।
लेकिन जिस आडवाणी ने कल भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा दिया है उसके बारे में जिनको जो भी कहना हो, इतना तो तय है कि वह भाजपा के एकमात्र गेमचेंजर हैं। लेकिन कुछ बातें ऐसी भी हैं जिन पर बात हुए बगैर कई बातें अधूरी रह जाती हैं। वैसे आज आडवाणी के लिए किसी के मन में कोई सहानुभूति नहीं बची है लेकिन क्या आडवाणी दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा देने का कारण वही है जो उन्होंने अपनी चिट्ठी में लिखा है। क्या सचमुच भाजपा वैसी पार्टी नहीं रह गई है जैसी पहले थी। अर्थात उनकी नजर में अब भाजपा पार्टी विथ डिफरेंस नहीं बल्कि पार्टी विथ डिफरेंसेस हो गई है।
क्या ये वही आडवाणी नहीं हैं जिन्होंने 2002 में गुजरात में हो रहे नरसंहार के दौरान प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा मोदी को हटाने का निर्णय लेने के बाद मुख्यमंत्री के पद पर बनाए रहने के लिए बाध्य कर दिया था (मेरा मतलब यह नहीं है कि वाजपेयी बहुत सेकुलर व्यक्ति थे और गुजरात में हो रहे नरसंहार के खिलाफ थे। वह वाजपेयी ही थे जो बाबरी मस्जिद विध्वंस के खिलाफ धरने पर बैठ गए थे और फिर बाद में उन्होंने इस हरकत को महिमामंडन करते हुए इसे राष्ट्रीय भावना का प्रकटीकरण कह दिया था। इसी तरह गुजरात में हो रहे दंगे के दौरान उन्होंने एक बार फिर अपनी पुरानी परंपरा को दोहराते हुए कहा था-आखिर शुरुआत किसने की थी?’)
आडवाणी के एक करीब के सहयोगी और उनके बहुत बड़े प्रशंसक का कहना था कि आडवाणी जी के इस्तीफे को मोदी की ताजपोशी से जोड़कर कतई नहीं देखना चाहिए। उनकी व्याख्या तो इस बारे में यहां तक थी कि उन्होंने इस्तीफा देकर सचमुच एक स्टेट्समैन का काम किया है क्योंकि हमारे देश में मोदी जैसों के लिए कोई जगह नहीं है। उनका कहना था कि भारत के लोग मोदी जैसे कट्टरपंथी व्यक्ति को बर्दास्त करने को तैयार नहीं है। वे तो यह भी कह रहे थे कि अगर मोदी प्रकरण न भी हुआ होता तो आडवाणी जी ने इस्तीफा देने का मन बना लिया था।
उनके जैसे व्यक्ति से यह सुनकर थोड़ा बुरा लगा। आखिर कैसे उस व्यक्ति को लगता है कि आडवाणी के इस्तीफे का मोदी के कंपैन कमिटी के प्रमुख बनने से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जो व्यक्ति उन्हें स्टेट्समैन का दर्जा दे रहा है वह क्यों इस बात को नहीं देखना चाहता है कि उनके मन में प्रधानमंत्री पद की लालसा थी जो मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाते ही खत्म हो गयी। हालांकि जानने वाले यह भी जानते हैं कि प्रचार समिति के अध्यक्ष का बहुत ज्यादा अर्थ नहीं होता है क्योंकि दिमाग पर काफी जोर देकर सोचने से भी यह बात दिमाग में बमुश्किल आती है कि जब आडवाणी 2009 में एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे उस समय अरुण जेटली के जिम्मे यह जिम्मेदारी थी और 2004 में वाजपेयी के इंडिया शाइनिंग कंपैन का जिम्मा प्रमोद महाजन के उपर था।
आडवाणी के इस्तीफे से भाजपा में जितना भी हंगामा मचा हो, भाजपा के शीर्ष पुरुष की महत्ता पार्टी के समर्थकों में तो घटी ही है। भाजपा समर्थित लोगों को लगने लगा है कि हिन्दू हृदय सम्राट नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने देने से रोकने में कांग्रेस या कोई और नहीं बल्कि उनके अपने राजनैतिक गुरु आडवाणी हैं जो नहीं चाह रहे हैं कि मोदी प्रधानमंत्री बने। आडवाणी के घर के बाहर जाकर प्रदर्शन करने वाले वही घनघोर पुरातनपंथी, कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी भारतीय मन और आत्मा वाले भाजपा समर्थक लोग ही हैं जिन्हें उन्होंने राजनीति में शामिल करा दिया था।
 
                                             बलराज मधोक से साथ 'लौह पुरुष' आडवाणी
 
आखिर भाजपाई या भाजपा के समर्थक इसे क्यों भूल जाते हैं कि इसी अटल-आडवाणी की जोड़ी ने 48 साल पहले जनसंघ के शीर्ष पुरुष बलराज मधोक को बड़े बेआबरू करके निकाल दिया था। आज अगर नरेन्द्र मोदी उनके साथ यही खेल खेल रहा है तो कौन सा अन्याय कर रहा है। हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि मोदी उनका सिर्फ शिष्य था। लालकृष्ण आडवाणी तो बलराज मधोक के निजी सहायक (पीएस) थे।