संजय काक एक ऐसे डाक्यूमेंट्री फिल्म-मेकर हैं, जिन्होंने अपने फॉर्म को लगातार बदला है। फार्म बदलने का मतलब यह है कि उन्होंने लोकतंत्र और लोकतंत्र के विभिन्न रुपों को तरह-तरह से समझने की कोशिश की है। संजय काक से उनकी नवीनतम फिल्म ‘माटी के लाल’(रेड एंट ड्रीम) के बहाने वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर विस्तार से बातचीत की गई। यह बातचीत कथाकार पंकज बिष्ट के संपादकत्व में निकलनेवाली हमारे समय की महत्वपूर्ण पत्रिका समयान्तर के वर्तमान अंक (सितंबर-2013) में छपी है।
आपने 1995-96 में एक फिल्म बनाई थी 'वन वीपन’(एकलौता हथियार), जिसमें वोट डालने में ही लोगों को अपनी सारी समस्याओं का समाधान दिखता है, उसके बाद 1999 में नर्मदा घाटी में चल रहे संघर्ष पर 'पानी पे लिखा’ (वर्ड्स ऑन वाटर) फिल्म बनाई और 2006-07 में 'जश्न-ए-आजादी’, जो कश्मीर के बारे में है। 'माटी के लाल’ (रेड एंट ड्रीम) जो इस सीरीज की चौथी फिल्म है, इनमें आपस में कहीं न कहीं कोई तार जुड़ा हुआ है?
आप बिल्कुल सही समझ रहे हैं, वन वीपन 25-30 मिनट की छोटी सी फिल्म थी, जो कॉलेज के विद्यार्थियों को बताने के लिए बनाई गई थी और लोकतंत्र इसकी विषयवस्तु थी। यह फिल्म आजादी की 50वीं वर्षगांठ पर बनाने के लिए दी गई थी। इसे दो राज्यों-तमिलनाडु और पंजाब के दलित एक्टिविस्टों से चुनाव से पहले और बाद में बात करने के बाद बनाया गया था। फिल्म बनाने के दौरान पता चला कि लोकतंत्र का अर्थ बदलने लगा है या फिर बदलवाया जा रहा है। उस दौरान मुझे यह भी समझने में मदद मिली कि लोगों और राजसत्ता के बीच रिश्ता क्या है, लोगों की समस्याओं की सुनवाई कहां होती है। जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं उसमें लोगों की बात सुनी जाती है या नहीं? जब हमने 1999-2000 में वर्ड्स ऑन वाटर (पानी पे लिखा) बनाई तो मेरी समझ से वह फिल्म कहीं भी बन सकती थी। मणिपुर में बन सकती थी, कश्मीर में बन सकती थी या फिर कहीं और भी बन सकती थी। लेकिन नर्मदा को हमने इसलिए चुना, क्योंकि उसका एक लंबा इतिहास था, बहुत ही साफ बातें कह रहे थे वे लोग। आंदोलनकारियों के तर्क स्पष्ट थे, क्योंकि वे लोग अहिंसक तरीके से अपनी बात कह रहे थे। इसलिए मुझे लगता था कि जब कहीं हिंसा हो रही होती है और बंदूक का प्रयोग हो रहा होता है तो तात्कालिक रूप से उन मसलों का आकलन करना मुश्किल हो जाता है। हिंसा का प्रभाव काफी ज्यादा होता है। इसलिए मैंने सोचा कि नर्मदा घाटी में जो हो रहा है, उसे ही देखा जाए। घाटी में लंबे समय से संघर्ष चल रहा था, सुप्रीम कोर्ट का सात-आठ साल के बाद फैसला आया था बांध के खिलाफ और फिर से बांध बनने लगा। जिस तरह वहां के लोगों की नैतिक और सैद्धांतिक लड़ाई को सरकार ने उठाकर बाहर फेंक दिया और खासकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से, तो उसे जबर्दस्त नुकसान हुआ। तब मुझे लगा कि अपने काम के क्षेत्र का विस्तार किया जाना चाहिए। 2002 में पानी पे लिखा बनाने के बाद मैं कश्मीर गया और जश्न ए आजादी बनाई। उसका इसके साथ संबंध तो है, क्योंकि मुझे लगने लगा आखिर जिसे हम लोकतांत्रिक अधिकार कहते हैं वह क्या सिर्फ नई दिल्ली तक आसपास के दो तीन जिलों तक सीमित है या सचमुच देश में पूरे देश में लोकतंत्र है। मेरे लिए यह फिल्म इसी लोकतंत्र की तलाश के बारे में है। इस लोकतंत्र में जो एक क्रांतिकारी लहर शुरू से रही है और जो लोग अपने को क्रांतिकारी कहते हैं, उनका लोकतंत्र में विश्वास नहीं है। लेकिन यह भी हो सकता है कि वे लोकतंत्र को दूसरी नजर से देखते हों। इसलिए जब फिल्म बननी शुरू हुई थी तो मैंने कोई नक्शा बनाकर किसी भी फिल्म पर काम नहीं शुरू किया था, लेकिन मेरी चारों फिल्में, खासकर लंबी फिल्में पानी पे लिखा, जश्न-ए-आजादी और माटी के लाल, वे हैं तो लोकतंत्र के बारे में ही, पर वे आपस में जुड़ गई हैं।
इन चारों फिल्मों के संदर्भ में हिंदुस्तान को आप कहां पाते हैं। क्या कहीं भी ‘इंडिया शाइनिंग’या 'इंक्रीडेबल इंडिया’ की कोई झलक मिलती है?
मैं कभी इन फिल्मों को मायूसी की नजर से नहीं देखता हूं, क्योंकि कभी-कभी ऐसा लगता है कि जब हम चीजों को बारीकी से देखते हैं तो महसूस होता है कि यह तो आलोचना है। लेकिन मैं समझता हूं कि लोकतंत्र की योजना (प्रोजेक्ट) 1947 में नहीं आयी और ऐसा भी नहीं है कि 1947 के बाद लोकतंत्र पूरी तरह आ गया। मेरी समझ से लोकतंत्र की योजना काफी लंबी है या कहिए कि यह 'वर्क इन प्रोग्रेस’ (सतत चलता काम) है। मुझे लगता है कि हम सबकी यह जिम्मेदारी है कि हम हर दिन उस पर नजर रखें और किसी को हमला न करने दें। इसलिए मुझे लगता है कि जो भी संघर्ष चल रहे हैं, उन्हें ही मैं 'इंक्रीडेबल इंडिया’ मानता हूं। जब आप फिल्म बना रहे होते हैं तो उन लोगों के साथ आपको रहने का अवसर भी मिलता है और जैसे वे जी रहे हैं और जो वे कर रहे हैं, उसे देखने का भी। मेरे हिसाब से 'शाइनिंग इंडिया’ भी वही है।
सरकार की विनाशकारी नीतियों का विरोध करने और नक्सलियों के प्रति सहानुभूति भी रखने वाले कई लोगों का कहना है कि आपने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को हथियार से लैस दिखाकर उनकी प्रशासन के सामने पहचान करवा दी, जो उनके लिए खतरा साबित हो सकता है। क्या इससे आपको बचना नहीं चाहिए था?
देखिए, सरकार और कॉरपोरेटाइज मीडिया इस बात से सहमत होंगे कि छत्तीसगढ़ के जो आदिवासी हैं और लडऩे वाले हैं उनके बारे में किसी को कुछ पता न चले, उनकी शक्लें न दिखें, वे जीते-जागते लोग हैं या फिर हैवान हैं उनकी तस्वीर नहीं दिखनी चाहिए वे बिना शक्ल के होने चाहिए, जो बीच-बीच में निकलकर किसी नेता को अगवा कर लेते हैं, पुलिस बल पर आक्रमण कर देते हैं। उनकी शक्ल न दिखाना और उनकी पहचान छुपाना माइथॉलॉजी को बढ़ावा देना है। क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि जिन्होंने बंदूकें उठा ली हैं, चाहे वे कश्मीर में हैं या फिर बस्तर में, आखिर वे लोग कौन हैं और वे चाहते क्या हैं? हो सकता है कि जिन्होंने बंदूकें उठा ली हैं उन्होंने बहुत सोच-समझकर यह निर्णय लिया हो। यह भी हो सकता है कि वे बहुत तार्किक लोग हों और उनकी राजनीति हमसे ज्यादा विकसित हो। जब तक हम उनसे अवगत नहीं होंगे, खासकर फिल्मों में, मुझे लगता है यह ठीक नहीं हैं। अगर हम बस्तर में पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी को फिल्म में 15-20 मिनट तक उनकी तस्वीर देखते हैं या फिर उन्हें भूमकाल में नाचते हुए देखते हैं, तो मैं समझता हूं कि यह फिल्म का बहुत जरूरी पहलू है। जो आदमी पीएलजीए या वर्दी पहन लेता है या जो महिलाएं अपने बाल कटवा लेती हैं या फिर जो युवक सौ रुपए की सस्ती-सी डिजीटल घड़ी पहन लेता है, जो उन्हें पार्टी की तरफ से मिलती है, तो समझ लीजिए कि उन्होंने सबसे पहले अपनी मौत चुन ली है। इसलिए जब मैं जंगल में गया तो हमसे उनके सीनियर कॉमरेड ने खुद कहा कि आप जिसे चाहें फिल्मा सकते हैं, जबकि हमने तब तक अपना कैमरा भी नहीं निकाला था। उन्होंने कहा कि आप फिल्म में किसको नहीं दिखाएंगे, यह मैं खुद बता दूंगा। वह सीनियर कॉमरेड यह इसलिए नहीं कह रहे थे कि वे कुछ सीनियर कॉमरेड को नहीं दिखाना चाहते थे या सिर्फ जूनियर कॉमरेड को ही दिखाना चाहते थे। उनका कहना था कि कुछ लोगों को इसलिए नहीं दिखाइए क्योंकि वे कभी-कभी सामान लाने बाहर जाते हैं और उनकी पहचान हो सकती है। इसलिए ये जो बहस है और आपका ये सवाल भी मेरे सामने कोई पहली बार नहीं आया है, बल्कि यह मध्यमवर्गीय चिंता है जो पहले भी कई जगह स्क्रीनिंग में आ चुकी है। हो सकता है कि मध्यमवर्गीय चिंता (मिडिल क्लास एंक्साइटी) के चलते बंदूकधारी व्यक्तियों की बात सुनने से, हिंसा-अहिंसा के बहस से उनकी बात कहने में थोड़ी सी डगमगाहट आ जाए। लेकिन मैं इससे बिल्कुल सहमत नहीं हूं। रही बात उन्हें न दिखाने की, तो जो चाहते हैं कि उनको न दिखाया जाए, उसे कौन फिल्मकार दिखा सकता है या दिखाएगा?
फिल्म माटी के लाल में एक सीन बार-बार आता है जिसमें पंजाब में कॉमरेडों का समूह नाटक करता है, जुलूस निकालता है, प्रदर्शन करता है, लेकिन गहरा संघर्ष कहीं दिखता नहीं है- भले ही वह पाश या भगत सिंह की शहादत मना रहे हों। जबकि जब हम छत्तीसगढ़ में भूमकाल का दृश्य देखते हैं, तो उसमें वास्तविक संघर्ष दिखता है। या फिर उड़ीसा के नियमगिरी की पहाडिय़ों में जो संघर्ष दिखता है वह पंजाब में नहीं दिखता है या कहिए कि ये सारी चीजें सचमुच नाटकीय लगती हैं। क्या आप भी मानते हैं कि वहां संघर्ष सिर्फ नाटकों या प्रदर्शनों तक ही रह गया है? जबकि हम अजय भारद्वाज की तीनों फिल्मों को देखते हैं तो सामाजिक स्तर पर काफी उथल-पुथल महसूस होती है, जो आपकी फिल्मों में नहीं दिखती। क्या मैं सही पढ़ रहा हूं आपकी फिल्मों को?
इसकी दो वजहें हैं। फिल्म की संरचना बस्तर और नियमगिरी में है। पंजाब को इसमें लाने की कोशिश इसलिए थी कि हम उस संघर्ष को एक रूप में देखें और दर्शकों को वहां से थोड़ा बाहर निकाला जाए। हमें लगता था कि यह पंजाब से हो सकता है। आप मानेंगे कि पंजाब में गांव तो गांव नहीं रहा है, हरित क्रांति और पूंजीवादी कृषि के चलते पूंजी का प्रवाह जैसा शहर में हुआ है वैसा ही गांव में भी है और पूरे भारत में उस मॉडल का सबसे बेहतरीन उदाहरण पंजाब है। वैसे यह अलग बात है और जो फिल्म में नहीं है कि पंजाब में किसानों का आंदोलन धीरे-धीरे मजबूत हो रहा है। आपको पंजाब के बारे में अलग तरह से सोचना पड़ेगा, क्योंकि जो स्थिति नियमगिरी में है या देश के अन्य भागों में है, वह स्थिति किसानों की पंजाब में नहीं है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि वहां किसानों का आंदोलन नहीं है। अगर वहां किसी किसान की जमीन की नीलामी का कोई बैंक या सरकार नोटिस लगाती है, तो नीलामी के दिन दो-तीन हजार किसान अपने आप जमा हो जाते हैं और सरकारी अधिकारियों को वापस जाना पड़ता है। इसलिए अगर भगत सिंह या किसी के नाम पर दो-तीन हजार लोग जमा हो जाते हैं, तो इसका मतलब है कि यह किसी न किसी रूप में विचारधारात्मक प्रतिबद्धता (आइडियो-लॉजिकल कमिटमेंट) है, क्योंकि वे लोग भाड़े पर नहीं लाए गए हैं। इसलिए मैं उनके संघर्षों को कभी सांकेतिक नहीं मानता।
लोगों का कहना है कि माटी के लाल फिल्म माओवादियों पर है, जबकि नियमगिरी में पूरे आंदोलन का नेतृत्व लिंगराज कर रहे हैं जो गांधीवादी समाजवादी हैं, आपका इसके बारे में क्या कहना है?
फिल्म 'पानी पे लिखा'और 'माटी के लाल' में नियमगिरी में जो संघर्ष है, वह पूरी तरह अहिंसक है। लोगबाग सचमुच अहिंसक हैं और फिल्म को देखें तो पुलिस के अलावा किसी के पास कोई हथियार नहीं हैं, लेकिन सरकार और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल कोई भी नुमाइंदा उनकी एक भी बात मानने को तैयार नहीं है, तो क्या आपको लगता है कि उनके पास हिंसा के अलावा और कोई रास्ता बच जाता है?
आपके पहले सवाल के जवाब में मैंने कहा था कि यह फिल्म लोकतंत्र के बारे में है। लोगों को याद होगा कि कश्मीर में पहली बार लोगों ने 1989-90 में हथियार उठाए थे। लोगों ने बीसियों साल से लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात कहनी चाही थी, लेकिन उनकी कोई बात नहीं सुनी गई और फिर स्थिति ऐसी बनी कि जब लोगों ने हथियार उठा लिए तो अब आपको पता है कि हालात क्या हैं। नर्मदा घाटी की लड़ाई हो या नियमगिरी की, कोर्ट के जरिए या डंडे के जरिए अगर आप लोगों की बातों की अवहेलना करेंगे या फिर उड़ीसा में ही पॉस्को के खिलाफ या टाटा के खिलाफ कलिंगनगर में चल रहे संघर्ष हैं, तो हम जानते हैं कि लोग वहां जी-जान से उसका जबर्दस्त विरोध कर रहे हैं। हर तरह से उन्हें बाहर करना चाह रहे हैं, लेकिन जब आप उनकी बात नहीं सुनेंगे, उन्हें रौंद देंगे और डंडे की बदौलत लोगों का विनाश करेंगे तो फिर 10-15 सालों के बाद अगर वही लोग या फिर उनमें से कुछ लोग हथियार उठा लेते हैं और हिंसक संघर्ष के लिए तैयार हो जाते हैं तो यह हम सबकी जिम्मेदारी बन जाती है। लेकिन कॉरपोरेट मीडिया और सरकार उसे इस रूप में पेश करते हैं कि यह लड़ाई हिंसा और अहिंसा के बारे में है, जबकि बात लोकतंत्र को बचाने और लोकतंत्र को खत्म करने की होनी चाहिए।
कुछ लोगों का आरोप है कि आप जैसे लोगों को भारतीय लोकतंत्र में सिर्फ बुराई ही नजर आती है, जबकि इस साल को छोड़ दीजिए तो जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) इतना अच्छा रहा है, भारत इतना विकास कर रहा है, लेकिन आपको कुछ भी अच्छा नहीं दिखता है?
अगर जीडीपी ही पैमाना है, तो भारत सचमुच विकास कर रहा है। चीन को देखें। वहां बहुत विकास हो रहा है और विकास के इस दौर में नदियां, पहाड़, जंगल और प्रजा... सबको बर्बाद कर दिया गया है और आने वाले सौ वर्षों तक पूरा देश इसके दुष्परिणाम भोगता रहेगा। इस 10-20 साल में जिसे हम विकास काल मानते हैं, सोचना चाहिए कि उसका इतना विरोध क्यों हो रहा है। पंजाब में हरित क्रांति के बाद क्यों लोग सड़क पर आ रहे हैं। दूसरी ओर दिल्ली में एसी बसें हैं, मेट्रो है और पॉश कॉलोनियां में जन सुविधाएं भी हैं, लेकिन अगर दिल्ली में ही हाशिए के लोगों को देखें तो पता चलेगा कि हालात क्या हैं। अगर जीडीपी की बात करें तो कापसहेड़ा और मानेसर के लोगों को भी देखा जाना चाहिए, जिनका जीडीपी बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेकिन दो-दो शिफ्ट में काम करने के बाद भी उनके हाथ छह-सात हजार रुपए से अधिक नहीं आता है। आखिर स्थिति इतनी भयावह क्यों है? हर हाथ में मोबाइल को सोशल इंडिकेटर (सामाजिक समृद्धि का संकेतक)का पैमाना नहीं मान सकते। इसका असली पैमाना यह होगा कि बच्चों में मृत्यु दर कितनी कम हुई है, पहले से कितने कम लोग भूखे पेट सोते हैं, और ये सब देखें तो आपको पता चलेगा कि हालात बहुत ही खराब हैं।
जब एनडीए की सरकार थी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात काफी जोर-शोर से उठाई गई थी और आप लोगों ने ‘फिल्म्स फॉर फ्रीडम’के नाम से एक बहुत ही सार्थक कार्यक्रम भी चलाया था, लेकिन जब यूपीए की सरकार आई तो यह कार्यक्रम लगभग या पूरी तरह थम सा गया। क्या आप या आपलोग सचमुच यह मानते हैं कि समस्या सिर्फ एनडीए के समय ही थी और यूपीए के आने के बाद सबकुछ ठीक हो गया या फिर आपलोग ही शिथिल पड़ गए। वास्तव में वक्त बदला है या चीजें यथावत हैं?
आपका सवाल काफी बढिय़ा है। देखिए, भाजपा और कांग्रेस के बीच अंतर तो बहुत हैं। अगर भाजपा के शासनकाल में उनकी बात नहीं मानी जाती थी, तो अपने गुंडों को भेजकर तोडफ़ोड़ करवा देते थे, मारपीट पर उतर आते थे, लेकिन कांग्रेस बहुत ही चालाक पार्टी है, उसके पास शासन करने का लंबा इतिहास है। यूपीए और कांग्रेस की नीति बाजार से संचालित है, इसलिए ये सेंसर बोर्ड, गुंडागर्दी या सीधे बदमाशी के जरिए काम नहीं करती, बल्कि बाजार के जरिए भी उनका बहुत काम हो जाता है। आप देखेंगे कि मास मीडिया या टेलीविजन पर सेंसरशिप नहीं है, लेकिन क्या कारण है कि उन मुद्दों पर वहां पूरी तरह चुप्पी है जिनपर सरकार चाहती है? इसलिए बाजार के जरिए भी बहुत से काम हो जाते हैं और सीधे सेंसर की जरूरत भी नहीं पड़ती। रही बात फिल्ममेकर्स के कंपैन की, तो कंपैन तो कंपैन की तरह ही होना चाहिए। इसे पेशा नहीं बनाना चाहिए। लेकिन इस कंपैन का काफी असर हुआ है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रतिरोध के सिनेमा के बैनर तले छोटे-छोटे फिल्म फेस्टिवल होने लगे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश के कई शहरों में लगातार फिल्में दिखाई जा रही हैं और जब हम इसकी तुलना करें तो दुनिया के किसी कोने में इस तरह फिल्में अभी नहीं दिखाई जा रही हैं, यह बड़ी उपलब्घि है।
आपको फिल्म बनाते हुए तीस साल से अधिक हो गए, क्या कुछ बदला है?
अस्सी के दशक में जब मैं यूनिवर्सिटी से निकला तब से बहुत कुछ बदला है फिल्म मेकिंग के क्षेत्र में...
देखिए, जो बदला है वो टेक्नोलॉजी से अछूता नहीं है। क्योंकि उस वक्त जो फिल्में बनती थीं, तो वही लोग होते थे देखने वालों में जो फिल्म बनाते थे। साल में दस-बीस फिल्में बनती थीं और सब एक-दूसरे को जानते थे। अब कोई फिल्म बनती है, तो अगर तीन सौ लोगों की क्षमता वाला ऑडिटोरियम है तो वह पूरी तरह भर जाता है। डिस्ट्रीब्यूशन काफी आसान हो गया है। खरीददार बढ़ गए हैं, तो कुल मिलाकर मेरा मानना है कि काफी कुछ बदला है और ज्यादातर चीजें तकनीक के आसान होने से हुई हैं। छोटे प्रोजेक्टर लेकर किसी भी जगह को आप स्क्रीनिंग स्पेस में तब्दील कर सकते हैं।
वैसे यह सवाल काफी मूर्खता भरा है, फिर भी मैं पूछ रहा हूं कि क्या डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाकर जिंदगी जी जा सकती है?
नहीं, बिल्कुल नहीं। जब कोई व्यक्ति यह पूछने आता है कि इसमें मैं कैरियर बनाना चाहता हूं, तो मेरा स्पष्ट जवाब होता है कि नहीं, इसमें कैरियर तो कतई नहीं है। अच्छी डॉक्यूमेंट्री जुनून से बनती है और कैसे बनती है, इसे सब लोग जानते भी नहीं हैं। जब हम अपने सहयोगियों की फिल्म देखने जाते हैं और फिल्म खत्म होने के बाद क्रेडिट लाइन देखते हैं, तब पता चलता है कि उनको सपोर्ट कहां से मिला है। फिर भी, अच्छी फिल्में बन रही हैं और वे लोग बना रहे हैं जिनके पास मीडियम की समझदारी है, लेकिन वे बहुत संपन्न नहीं हैं, पर काम महत्त्वपूर्ण कर रहे हैं। डॉक्यूमेंट्री फिल्म कैरियर तो नहीं है और शायद इसी ने इसे बचाकर रखा है।
क्या डॉक्यूमेंट्री फिल्म एक कल्चरल प्रोडक्ट के रूप में अब भारत में अपने आप जीवित रह सकता है। जबकि हिंदी फिल्मों का इतना बड़ा बाजार है और खरीददार भी हैं, डॉक्यूमेंट्री फिल्म का कोई बाजार बन पाया है?
बिल्कुल, पहले एक छोटा तबका था जो इस तरह की फिल्में देखता था। मैं अक्सर कहता हूं कि इसे देखना और दिखाना संगीत की तरह है। बहुत लोगों ने इस पर मेहनत की है और उनकी मेहनत का ही यह परिणाम है कि अब पैसा भी आने लगा है। पहले जब हम फिल्म दिखाते थे, तो फिल्म के अंत में दो लोग आते थे कि क्या इस फिल्म की वीएचएस कॉपी मिल जाएगी, लेकिन जब आज आप किसी फिल्म की स्क्रीनिंग करें तो गारंटी मानिए कि अगर बाहर आपके डीवीडी पड़े हों तो सौ कापी तो जरूर बिक जाएंगी। इसलिए अब जब दर्शक देखने आते हैं, तो वे अपने पॉकेट में पैसे लेकर आते हैं और देखने के बाद खरीदते भी हैं, जो पहले बिल्कुल नहीं था।
दिल्ली में फिल्म 'माटी के लाल' की स्क्रीनिंग के बाद दर्शकों की जिज्ञासा शांत करते हुए दौरान फिल्मकार संजय काक |
आपकी फिल्म 'माटी के लाल’ देश के विभिन्न हिस्सों में चल रही राजनीतिक उथल-पुथल को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है। हालांकि यह प्रश्न थोड़ा अटपटा है, फिर भी मैं पूछना चाहता हूं कि 'माटी के लाल’ फिल्म का आइडिया आपके दिमाग में कैसे आया, अनायास या आपकी लंबी तैयारी का हिस्सा था?
कुछ सालों से मध्य भारत खासकर बस्तर, छत्तीसगढ़ में जो चल रहा है उसे देखकर कुछ लोगों को लगता है कि यह अपने आप ही हवा में पैदा हो गया है। इसका कोई इतिहास नहीं है। अखबारों में देखकर और सुनकर ऐसा लगता है कि माओवादी इन जंगलों में आए और बगावत शुरू हो गई या ज्यादा से ज्यादा कुछ सोच लिया तो कह देंगे कि इनका नेपाल के माओवादियों से कोई रिश्ता है! तो बात वहां से शुरू हुई कि भारत में क्रांतिकारी संभावनाएं कहां से पैदा होती हैं या क्रांति का इतिहास भारत में कहां से शुरू होता है। हम पाते हैं कि क्रांति की बात इस देश में 1947 से शुरू नहीं होती है, बल्कि उससे पहले भी इसकी बात होती रही है। 1947 के बाद हर साल किसी न किसी रूप में इस पर बात होती रही है। इसलिए जब लोग कहते हैं कि यह फिल्म क्रांतिकारी संभावनाओं पर एक दस्तावेज है, तो संभवत: इसलिए कि हमारी कोशिश यह थी कि हम कुछ ऐसी चीजों को जोड़ें जो हमें यह समझने में मदद करें कि इस देश में क्रांति की संभावना की बात सिर्फ माओवादियों के हाथ में ही नहीं है, बल्कि जो लोग उड़ीसा के नियमगिरी में खनन के खिलाफ लड़ रहे हैं वो भी अपने को क्रांतिकारी कहते हैं, और जो पंजाब में मजदूरों-किसानों के साथ लड़ रहे हैं वो भी अपने को क्रांतिकारी कहते हैं। इसलिए इस फिल्म में उस इतिहास को दोहराने की बात नहीं थी, बल्कि क्रांति की संभावना तलाशने की एक कोशिश थी कि वो क्या है, उसके सूत्र क्या हैं।
आपने 1995-96 में एक फिल्म बनाई थी 'वन वीपन’(एकलौता हथियार), जिसमें वोट डालने में ही लोगों को अपनी सारी समस्याओं का समाधान दिखता है, उसके बाद 1999 में नर्मदा घाटी में चल रहे संघर्ष पर 'पानी पे लिखा’ (वर्ड्स ऑन वाटर) फिल्म बनाई और 2006-07 में 'जश्न-ए-आजादी’, जो कश्मीर के बारे में है। 'माटी के लाल’ (रेड एंट ड्रीम) जो इस सीरीज की चौथी फिल्म है, इनमें आपस में कहीं न कहीं कोई तार जुड़ा हुआ है?
आप बिल्कुल सही समझ रहे हैं, वन वीपन 25-30 मिनट की छोटी सी फिल्म थी, जो कॉलेज के विद्यार्थियों को बताने के लिए बनाई गई थी और लोकतंत्र इसकी विषयवस्तु थी। यह फिल्म आजादी की 50वीं वर्षगांठ पर बनाने के लिए दी गई थी। इसे दो राज्यों-तमिलनाडु और पंजाब के दलित एक्टिविस्टों से चुनाव से पहले और बाद में बात करने के बाद बनाया गया था। फिल्म बनाने के दौरान पता चला कि लोकतंत्र का अर्थ बदलने लगा है या फिर बदलवाया जा रहा है। उस दौरान मुझे यह भी समझने में मदद मिली कि लोगों और राजसत्ता के बीच रिश्ता क्या है, लोगों की समस्याओं की सुनवाई कहां होती है। जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं उसमें लोगों की बात सुनी जाती है या नहीं? जब हमने 1999-2000 में वर्ड्स ऑन वाटर (पानी पे लिखा) बनाई तो मेरी समझ से वह फिल्म कहीं भी बन सकती थी। मणिपुर में बन सकती थी, कश्मीर में बन सकती थी या फिर कहीं और भी बन सकती थी। लेकिन नर्मदा को हमने इसलिए चुना, क्योंकि उसका एक लंबा इतिहास था, बहुत ही साफ बातें कह रहे थे वे लोग। आंदोलनकारियों के तर्क स्पष्ट थे, क्योंकि वे लोग अहिंसक तरीके से अपनी बात कह रहे थे। इसलिए मुझे लगता था कि जब कहीं हिंसा हो रही होती है और बंदूक का प्रयोग हो रहा होता है तो तात्कालिक रूप से उन मसलों का आकलन करना मुश्किल हो जाता है। हिंसा का प्रभाव काफी ज्यादा होता है। इसलिए मैंने सोचा कि नर्मदा घाटी में जो हो रहा है, उसे ही देखा जाए। घाटी में लंबे समय से संघर्ष चल रहा था, सुप्रीम कोर्ट का सात-आठ साल के बाद फैसला आया था बांध के खिलाफ और फिर से बांध बनने लगा। जिस तरह वहां के लोगों की नैतिक और सैद्धांतिक लड़ाई को सरकार ने उठाकर बाहर फेंक दिया और खासकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से, तो उसे जबर्दस्त नुकसान हुआ। तब मुझे लगा कि अपने काम के क्षेत्र का विस्तार किया जाना चाहिए। 2002 में पानी पे लिखा बनाने के बाद मैं कश्मीर गया और जश्न ए आजादी बनाई। उसका इसके साथ संबंध तो है, क्योंकि मुझे लगने लगा आखिर जिसे हम लोकतांत्रिक अधिकार कहते हैं वह क्या सिर्फ नई दिल्ली तक आसपास के दो तीन जिलों तक सीमित है या सचमुच देश में पूरे देश में लोकतंत्र है। मेरे लिए यह फिल्म इसी लोकतंत्र की तलाश के बारे में है। इस लोकतंत्र में जो एक क्रांतिकारी लहर शुरू से रही है और जो लोग अपने को क्रांतिकारी कहते हैं, उनका लोकतंत्र में विश्वास नहीं है। लेकिन यह भी हो सकता है कि वे लोकतंत्र को दूसरी नजर से देखते हों। इसलिए जब फिल्म बननी शुरू हुई थी तो मैंने कोई नक्शा बनाकर किसी भी फिल्म पर काम नहीं शुरू किया था, लेकिन मेरी चारों फिल्में, खासकर लंबी फिल्में पानी पे लिखा, जश्न-ए-आजादी और माटी के लाल, वे हैं तो लोकतंत्र के बारे में ही, पर वे आपस में जुड़ गई हैं।
इन चारों फिल्मों के संदर्भ में हिंदुस्तान को आप कहां पाते हैं। क्या कहीं भी ‘इंडिया शाइनिंग’या 'इंक्रीडेबल इंडिया’ की कोई झलक मिलती है?
मैं कभी इन फिल्मों को मायूसी की नजर से नहीं देखता हूं, क्योंकि कभी-कभी ऐसा लगता है कि जब हम चीजों को बारीकी से देखते हैं तो महसूस होता है कि यह तो आलोचना है। लेकिन मैं समझता हूं कि लोकतंत्र की योजना (प्रोजेक्ट) 1947 में नहीं आयी और ऐसा भी नहीं है कि 1947 के बाद लोकतंत्र पूरी तरह आ गया। मेरी समझ से लोकतंत्र की योजना काफी लंबी है या कहिए कि यह 'वर्क इन प्रोग्रेस’ (सतत चलता काम) है। मुझे लगता है कि हम सबकी यह जिम्मेदारी है कि हम हर दिन उस पर नजर रखें और किसी को हमला न करने दें। इसलिए मुझे लगता है कि जो भी संघर्ष चल रहे हैं, उन्हें ही मैं 'इंक्रीडेबल इंडिया’ मानता हूं। जब आप फिल्म बना रहे होते हैं तो उन लोगों के साथ आपको रहने का अवसर भी मिलता है और जैसे वे जी रहे हैं और जो वे कर रहे हैं, उसे देखने का भी। मेरे हिसाब से 'शाइनिंग इंडिया’ भी वही है।
सरकार की विनाशकारी नीतियों का विरोध करने और नक्सलियों के प्रति सहानुभूति भी रखने वाले कई लोगों का कहना है कि आपने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को हथियार से लैस दिखाकर उनकी प्रशासन के सामने पहचान करवा दी, जो उनके लिए खतरा साबित हो सकता है। क्या इससे आपको बचना नहीं चाहिए था?
कुछ लोग इस फिल्म को माओवाद पर बनी फिल्म मानते हैं, जबकि यह प्रतिरोध पर है! |
देखिए, सरकार और कॉरपोरेटाइज मीडिया इस बात से सहमत होंगे कि छत्तीसगढ़ के जो आदिवासी हैं और लडऩे वाले हैं उनके बारे में किसी को कुछ पता न चले, उनकी शक्लें न दिखें, वे जीते-जागते लोग हैं या फिर हैवान हैं उनकी तस्वीर नहीं दिखनी चाहिए वे बिना शक्ल के होने चाहिए, जो बीच-बीच में निकलकर किसी नेता को अगवा कर लेते हैं, पुलिस बल पर आक्रमण कर देते हैं। उनकी शक्ल न दिखाना और उनकी पहचान छुपाना माइथॉलॉजी को बढ़ावा देना है। क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि जिन्होंने बंदूकें उठा ली हैं, चाहे वे कश्मीर में हैं या फिर बस्तर में, आखिर वे लोग कौन हैं और वे चाहते क्या हैं? हो सकता है कि जिन्होंने बंदूकें उठा ली हैं उन्होंने बहुत सोच-समझकर यह निर्णय लिया हो। यह भी हो सकता है कि वे बहुत तार्किक लोग हों और उनकी राजनीति हमसे ज्यादा विकसित हो। जब तक हम उनसे अवगत नहीं होंगे, खासकर फिल्मों में, मुझे लगता है यह ठीक नहीं हैं। अगर हम बस्तर में पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी को फिल्म में 15-20 मिनट तक उनकी तस्वीर देखते हैं या फिर उन्हें भूमकाल में नाचते हुए देखते हैं, तो मैं समझता हूं कि यह फिल्म का बहुत जरूरी पहलू है। जो आदमी पीएलजीए या वर्दी पहन लेता है या जो महिलाएं अपने बाल कटवा लेती हैं या फिर जो युवक सौ रुपए की सस्ती-सी डिजीटल घड़ी पहन लेता है, जो उन्हें पार्टी की तरफ से मिलती है, तो समझ लीजिए कि उन्होंने सबसे पहले अपनी मौत चुन ली है। इसलिए जब मैं जंगल में गया तो हमसे उनके सीनियर कॉमरेड ने खुद कहा कि आप जिसे चाहें फिल्मा सकते हैं, जबकि हमने तब तक अपना कैमरा भी नहीं निकाला था। उन्होंने कहा कि आप फिल्म में किसको नहीं दिखाएंगे, यह मैं खुद बता दूंगा। वह सीनियर कॉमरेड यह इसलिए नहीं कह रहे थे कि वे कुछ सीनियर कॉमरेड को नहीं दिखाना चाहते थे या सिर्फ जूनियर कॉमरेड को ही दिखाना चाहते थे। उनका कहना था कि कुछ लोगों को इसलिए नहीं दिखाइए क्योंकि वे कभी-कभी सामान लाने बाहर जाते हैं और उनकी पहचान हो सकती है। इसलिए ये जो बहस है और आपका ये सवाल भी मेरे सामने कोई पहली बार नहीं आया है, बल्कि यह मध्यमवर्गीय चिंता है जो पहले भी कई जगह स्क्रीनिंग में आ चुकी है। हो सकता है कि मध्यमवर्गीय चिंता (मिडिल क्लास एंक्साइटी) के चलते बंदूकधारी व्यक्तियों की बात सुनने से, हिंसा-अहिंसा के बहस से उनकी बात कहने में थोड़ी सी डगमगाहट आ जाए। लेकिन मैं इससे बिल्कुल सहमत नहीं हूं। रही बात उन्हें न दिखाने की, तो जो चाहते हैं कि उनको न दिखाया जाए, उसे कौन फिल्मकार दिखा सकता है या दिखाएगा?
फिल्म माटी के लाल में एक सीन बार-बार आता है जिसमें पंजाब में कॉमरेडों का समूह नाटक करता है, जुलूस निकालता है, प्रदर्शन करता है, लेकिन गहरा संघर्ष कहीं दिखता नहीं है- भले ही वह पाश या भगत सिंह की शहादत मना रहे हों। जबकि जब हम छत्तीसगढ़ में भूमकाल का दृश्य देखते हैं, तो उसमें वास्तविक संघर्ष दिखता है। या फिर उड़ीसा के नियमगिरी की पहाडिय़ों में जो संघर्ष दिखता है वह पंजाब में नहीं दिखता है या कहिए कि ये सारी चीजें सचमुच नाटकीय लगती हैं। क्या आप भी मानते हैं कि वहां संघर्ष सिर्फ नाटकों या प्रदर्शनों तक ही रह गया है? जबकि हम अजय भारद्वाज की तीनों फिल्मों को देखते हैं तो सामाजिक स्तर पर काफी उथल-पुथल महसूस होती है, जो आपकी फिल्मों में नहीं दिखती। क्या मैं सही पढ़ रहा हूं आपकी फिल्मों को?
इसकी दो वजहें हैं। फिल्म की संरचना बस्तर और नियमगिरी में है। पंजाब को इसमें लाने की कोशिश इसलिए थी कि हम उस संघर्ष को एक रूप में देखें और दर्शकों को वहां से थोड़ा बाहर निकाला जाए। हमें लगता था कि यह पंजाब से हो सकता है। आप मानेंगे कि पंजाब में गांव तो गांव नहीं रहा है, हरित क्रांति और पूंजीवादी कृषि के चलते पूंजी का प्रवाह जैसा शहर में हुआ है वैसा ही गांव में भी है और पूरे भारत में उस मॉडल का सबसे बेहतरीन उदाहरण पंजाब है। वैसे यह अलग बात है और जो फिल्म में नहीं है कि पंजाब में किसानों का आंदोलन धीरे-धीरे मजबूत हो रहा है। आपको पंजाब के बारे में अलग तरह से सोचना पड़ेगा, क्योंकि जो स्थिति नियमगिरी में है या देश के अन्य भागों में है, वह स्थिति किसानों की पंजाब में नहीं है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि वहां किसानों का आंदोलन नहीं है। अगर वहां किसी किसान की जमीन की नीलामी का कोई बैंक या सरकार नोटिस लगाती है, तो नीलामी के दिन दो-तीन हजार किसान अपने आप जमा हो जाते हैं और सरकारी अधिकारियों को वापस जाना पड़ता है। इसलिए अगर भगत सिंह या किसी के नाम पर दो-तीन हजार लोग जमा हो जाते हैं, तो इसका मतलब है कि यह किसी न किसी रूप में विचारधारात्मक प्रतिबद्धता (आइडियो-लॉजिकल कमिटमेंट) है, क्योंकि वे लोग भाड़े पर नहीं लाए गए हैं। इसलिए मैं उनके संघर्षों को कभी सांकेतिक नहीं मानता।
लोगों का कहना है कि माटी के लाल फिल्म माओवादियों पर है, जबकि नियमगिरी में पूरे आंदोलन का नेतृत्व लिंगराज कर रहे हैं जो गांधीवादी समाजवादी हैं, आपका इसके बारे में क्या कहना है?
जश्न-ए-आजादी में कश्मीर को एक अलग नजरिए से देखने की कोशिश है.... |
जहां कहीं भी मैं यह फिल्म दिखाने जाता हूं तो उसको लोग इसी नजरिए से देखते हैं कि यह फिल्म माओवाद के बारे में है, तो उसमें नियमगिरी क्यों है या पंजाब क्यों है? इससे मुझे भी बहुत दिक्कत होती है, जबकि हमारी मंशा यह थी ही नहीं कि हम सिर्फ माओवाद पर फिल्म बना रहे हैं। फिल्म की कोशिश यही थी कि हमारे लिए जिस तरह की लड़ाई लिंगराज आजाद और नियमगिरी सुरक्षा समिति वाले उड़ीसा में लड़ रहे हैं, उतनी ही अहमियत उनकी भी है जो बस्तर में लड़ रहे हैं। जिस तरह का मोबलाइजेशन पंजाब में संस्कृति के इर्द-गिर्द किया जा रहा है, माओवादियों ने वही सांस्कृतिक मोबलाइजेशन बस्तर में किया है। फिल्म का एक उद्देश्य यह था कि हम सिर्फ एक तरह के संघर्ष को पहचान न मानें। हम इतने जटिल समय में हैं कि पंजाब का पांच या दस एकड़ जमीन वाला संपन्न किसान भी अपने को लडऩेवाला मानता है और नियमगिरी के आदिवासी भी अलग तरह से संघर्ष कर रहे हैं। दोनों के संघर्ष एक से नहीं हो सकते हैं, लेकिन इस 'बायोडावर्सिटी ऑफ रेजिस्टेंस’ में भी एक क्रांतिकारी संभावना का तार है। लोग चाहते हैं, जो स्थिति है इसको धीरे-धीरे सुधारें नहीं बल्कि बदलाब लाने की कोशिश करें, क्योंकि असली क्रांति तो बदलाव ही है और इसी के लिए कोशिश करनी है।
फिल्म 'पानी पे लिखा'और 'माटी के लाल' में नियमगिरी में जो संघर्ष है, वह पूरी तरह अहिंसक है। लोगबाग सचमुच अहिंसक हैं और फिल्म को देखें तो पुलिस के अलावा किसी के पास कोई हथियार नहीं हैं, लेकिन सरकार और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल कोई भी नुमाइंदा उनकी एक भी बात मानने को तैयार नहीं है, तो क्या आपको लगता है कि उनके पास हिंसा के अलावा और कोई रास्ता बच जाता है?
आपके पहले सवाल के जवाब में मैंने कहा था कि यह फिल्म लोकतंत्र के बारे में है। लोगों को याद होगा कि कश्मीर में पहली बार लोगों ने 1989-90 में हथियार उठाए थे। लोगों ने बीसियों साल से लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात कहनी चाही थी, लेकिन उनकी कोई बात नहीं सुनी गई और फिर स्थिति ऐसी बनी कि जब लोगों ने हथियार उठा लिए तो अब आपको पता है कि हालात क्या हैं। नर्मदा घाटी की लड़ाई हो या नियमगिरी की, कोर्ट के जरिए या डंडे के जरिए अगर आप लोगों की बातों की अवहेलना करेंगे या फिर उड़ीसा में ही पॉस्को के खिलाफ या टाटा के खिलाफ कलिंगनगर में चल रहे संघर्ष हैं, तो हम जानते हैं कि लोग वहां जी-जान से उसका जबर्दस्त विरोध कर रहे हैं। हर तरह से उन्हें बाहर करना चाह रहे हैं, लेकिन जब आप उनकी बात नहीं सुनेंगे, उन्हें रौंद देंगे और डंडे की बदौलत लोगों का विनाश करेंगे तो फिर 10-15 सालों के बाद अगर वही लोग या फिर उनमें से कुछ लोग हथियार उठा लेते हैं और हिंसक संघर्ष के लिए तैयार हो जाते हैं तो यह हम सबकी जिम्मेदारी बन जाती है। लेकिन कॉरपोरेट मीडिया और सरकार उसे इस रूप में पेश करते हैं कि यह लड़ाई हिंसा और अहिंसा के बारे में है, जबकि बात लोकतंत्र को बचाने और लोकतंत्र को खत्म करने की होनी चाहिए।
कुछ लोगों का आरोप है कि आप जैसे लोगों को भारतीय लोकतंत्र में सिर्फ बुराई ही नजर आती है, जबकि इस साल को छोड़ दीजिए तो जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) इतना अच्छा रहा है, भारत इतना विकास कर रहा है, लेकिन आपको कुछ भी अच्छा नहीं दिखता है?
अगर जीडीपी ही पैमाना है, तो भारत सचमुच विकास कर रहा है। चीन को देखें। वहां बहुत विकास हो रहा है और विकास के इस दौर में नदियां, पहाड़, जंगल और प्रजा... सबको बर्बाद कर दिया गया है और आने वाले सौ वर्षों तक पूरा देश इसके दुष्परिणाम भोगता रहेगा। इस 10-20 साल में जिसे हम विकास काल मानते हैं, सोचना चाहिए कि उसका इतना विरोध क्यों हो रहा है। पंजाब में हरित क्रांति के बाद क्यों लोग सड़क पर आ रहे हैं। दूसरी ओर दिल्ली में एसी बसें हैं, मेट्रो है और पॉश कॉलोनियां में जन सुविधाएं भी हैं, लेकिन अगर दिल्ली में ही हाशिए के लोगों को देखें तो पता चलेगा कि हालात क्या हैं। अगर जीडीपी की बात करें तो कापसहेड़ा और मानेसर के लोगों को भी देखा जाना चाहिए, जिनका जीडीपी बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेकिन दो-दो शिफ्ट में काम करने के बाद भी उनके हाथ छह-सात हजार रुपए से अधिक नहीं आता है। आखिर स्थिति इतनी भयावह क्यों है? हर हाथ में मोबाइल को सोशल इंडिकेटर (सामाजिक समृद्धि का संकेतक)का पैमाना नहीं मान सकते। इसका असली पैमाना यह होगा कि बच्चों में मृत्यु दर कितनी कम हुई है, पहले से कितने कम लोग भूखे पेट सोते हैं, और ये सब देखें तो आपको पता चलेगा कि हालात बहुत ही खराब हैं।
जब एनडीए की सरकार थी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात काफी जोर-शोर से उठाई गई थी और आप लोगों ने ‘फिल्म्स फॉर फ्रीडम’के नाम से एक बहुत ही सार्थक कार्यक्रम भी चलाया था, लेकिन जब यूपीए की सरकार आई तो यह कार्यक्रम लगभग या पूरी तरह थम सा गया। क्या आप या आपलोग सचमुच यह मानते हैं कि समस्या सिर्फ एनडीए के समय ही थी और यूपीए के आने के बाद सबकुछ ठीक हो गया या फिर आपलोग ही शिथिल पड़ गए। वास्तव में वक्त बदला है या चीजें यथावत हैं?
आपका सवाल काफी बढिय़ा है। देखिए, भाजपा और कांग्रेस के बीच अंतर तो बहुत हैं। अगर भाजपा के शासनकाल में उनकी बात नहीं मानी जाती थी, तो अपने गुंडों को भेजकर तोडफ़ोड़ करवा देते थे, मारपीट पर उतर आते थे, लेकिन कांग्रेस बहुत ही चालाक पार्टी है, उसके पास शासन करने का लंबा इतिहास है। यूपीए और कांग्रेस की नीति बाजार से संचालित है, इसलिए ये सेंसर बोर्ड, गुंडागर्दी या सीधे बदमाशी के जरिए काम नहीं करती, बल्कि बाजार के जरिए भी उनका बहुत काम हो जाता है। आप देखेंगे कि मास मीडिया या टेलीविजन पर सेंसरशिप नहीं है, लेकिन क्या कारण है कि उन मुद्दों पर वहां पूरी तरह चुप्पी है जिनपर सरकार चाहती है? इसलिए बाजार के जरिए भी बहुत से काम हो जाते हैं और सीधे सेंसर की जरूरत भी नहीं पड़ती। रही बात फिल्ममेकर्स के कंपैन की, तो कंपैन तो कंपैन की तरह ही होना चाहिए। इसे पेशा नहीं बनाना चाहिए। लेकिन इस कंपैन का काफी असर हुआ है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रतिरोध के सिनेमा के बैनर तले छोटे-छोटे फिल्म फेस्टिवल होने लगे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश के कई शहरों में लगातार फिल्में दिखाई जा रही हैं और जब हम इसकी तुलना करें तो दुनिया के किसी कोने में इस तरह फिल्में अभी नहीं दिखाई जा रही हैं, यह बड़ी उपलब्घि है।
आपको फिल्म बनाते हुए तीस साल से अधिक हो गए, क्या कुछ बदला है?
अस्सी के दशक में जब मैं यूनिवर्सिटी से निकला तब से बहुत कुछ बदला है फिल्म मेकिंग के क्षेत्र में...
संजय काक सैंसरशिप के खिलाफ चलाई गई लड़ाई की सबसे बड़ी उपलब्धि इसी तरह के फिल्मोत्सव को मानते हैं। |
मैं टेक्नोलॉजी की बात नहीं कर रहा हूं...?
देखिए, जो बदला है वो टेक्नोलॉजी से अछूता नहीं है। क्योंकि उस वक्त जो फिल्में बनती थीं, तो वही लोग होते थे देखने वालों में जो फिल्म बनाते थे। साल में दस-बीस फिल्में बनती थीं और सब एक-दूसरे को जानते थे। अब कोई फिल्म बनती है, तो अगर तीन सौ लोगों की क्षमता वाला ऑडिटोरियम है तो वह पूरी तरह भर जाता है। डिस्ट्रीब्यूशन काफी आसान हो गया है। खरीददार बढ़ गए हैं, तो कुल मिलाकर मेरा मानना है कि काफी कुछ बदला है और ज्यादातर चीजें तकनीक के आसान होने से हुई हैं। छोटे प्रोजेक्टर लेकर किसी भी जगह को आप स्क्रीनिंग स्पेस में तब्दील कर सकते हैं।
वैसे यह सवाल काफी मूर्खता भरा है, फिर भी मैं पूछ रहा हूं कि क्या डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाकर जिंदगी जी जा सकती है?
नहीं, बिल्कुल नहीं। जब कोई व्यक्ति यह पूछने आता है कि इसमें मैं कैरियर बनाना चाहता हूं, तो मेरा स्पष्ट जवाब होता है कि नहीं, इसमें कैरियर तो कतई नहीं है। अच्छी डॉक्यूमेंट्री जुनून से बनती है और कैसे बनती है, इसे सब लोग जानते भी नहीं हैं। जब हम अपने सहयोगियों की फिल्म देखने जाते हैं और फिल्म खत्म होने के बाद क्रेडिट लाइन देखते हैं, तब पता चलता है कि उनको सपोर्ट कहां से मिला है। फिर भी, अच्छी फिल्में बन रही हैं और वे लोग बना रहे हैं जिनके पास मीडियम की समझदारी है, लेकिन वे बहुत संपन्न नहीं हैं, पर काम महत्त्वपूर्ण कर रहे हैं। डॉक्यूमेंट्री फिल्म कैरियर तो नहीं है और शायद इसी ने इसे बचाकर रखा है।
क्या डॉक्यूमेंट्री फिल्म एक कल्चरल प्रोडक्ट के रूप में अब भारत में अपने आप जीवित रह सकता है। जबकि हिंदी फिल्मों का इतना बड़ा बाजार है और खरीददार भी हैं, डॉक्यूमेंट्री फिल्म का कोई बाजार बन पाया है?
बिल्कुल, पहले एक छोटा तबका था जो इस तरह की फिल्में देखता था। मैं अक्सर कहता हूं कि इसे देखना और दिखाना संगीत की तरह है। बहुत लोगों ने इस पर मेहनत की है और उनकी मेहनत का ही यह परिणाम है कि अब पैसा भी आने लगा है। पहले जब हम फिल्म दिखाते थे, तो फिल्म के अंत में दो लोग आते थे कि क्या इस फिल्म की वीएचएस कॉपी मिल जाएगी, लेकिन जब आज आप किसी फिल्म की स्क्रीनिंग करें तो गारंटी मानिए कि अगर बाहर आपके डीवीडी पड़े हों तो सौ कापी तो जरूर बिक जाएंगी। इसलिए अब जब दर्शक देखने आते हैं, तो वे अपने पॉकेट में पैसे लेकर आते हैं और देखने के बाद खरीदते भी हैं, जो पहले बिल्कुल नहीं था।