जितेन्द्र कुमार
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अंततः ढ़ोंग का रिश्ता टूट ही गया...साभार-इंटरनेट |
अंततः सत्रह साल पुराने गठबंधन नेशनल
डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) से नीतीश कुमार ने अपना नाता तोड़ ही लिया। बात कोई
छोटी नहीं थी, बात देश की धर्मनिरपेक्षता को बचाने की थी, जिसके लिए बड़े से बड़े
नेता तैयार नहीं होते, नीतीश जी के जमीर ने उन्हें झकझोरा और उसे बचा लिया क्योंकि
यह नीतीश की राजनीतिक ‘प्रतिबद्धता’ थी। इसी लिए तो नीतीश कुमार और उनके
सहयोगी वर्षों से कहते रहे हैं कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार सेकुलर छवि का होना
चाहिए।
इसका मतलब यह
हुआ कि जब तक सांप्रदायिक व्यक्ति किसी राज्य का मुख्यमंत्री है, उन्हें कोई
परेशानी नहीं हैं, उनके साथ गले मिला जा सकता है, उनकी तारीफ में कसीदे काढ़े जा
सकते हैं, जरुरत पड़ने पर उनको भले आदमी का सर्टिफिकेट दिया जा सकता है, बस उन्हें
प्रधानमंत्री का उम्मीदवार नहीं घोषित किया जाना चाहिए। वैसे नीतीश के प्रतिबद्धता
पर किसी तरह का प्रश्नचिन्ह उठाना अन्याय ही नहीं, अपराध कहा जा सकता है। क्योंकि
अगर कोई व्यक्ति नीतीश को याद दिलाना चाहे कि वही नीतीश इन 17 वर्षों में 14
वर्षों तक (छह साल केंद्रीय मंत्री के रुप में और 8 साल मुख्यमंत्री के रुप में)
उनके साथ सत्ता की मलाई खाते रहे हैं तो उनके सहयोगी और प्रशंसक उसे बीजेपी-संघ का
दलाल तक कह सकते हैं।
ये वही नीतीश
हैं जो गोधरा में यात्रियों को रेल कोच में जलाए जाने के बाद रेल मंत्री होते हुए
भी अपने जुनियर मंत्री को मुआयना के लिए वहां भेजा था। गोधरा के बाद पूरी तैयारी
के साथ जिस तरह राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मुसलमानों का
जनसंहार हुआ, वह स्वतंत्र भारत की सबसे त्रासदीपूर्ण काल था, लेकिन तब नीतीश को
उनसे कोई शिकायत नहीं थी। ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस
के जिम्मेवार भारतीय जनता पार्टी और उनके नेतागण खासकर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण
आडवाणी के साथ सत्ता सुख भोगने के लिए एनडीए बनाया था जो बाद में छ वर्षों तक केंद्रीय
सत्ता में रही और जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे होते रहे। उसी समय प्रवीण तोगड़िया और
अशोक सिंधल जैसे लोग पूरे देश में त्रिशूल बांटते रहे, जगह-जगह दंगे-फसाद करवाते
रहे और नीतीश चुपचाप मंत्री का सुख भोगते रहे। उनकी नजर में उस समय न नरेन्द्र
मोदी सांप्रदायिक थे और न ही बीजेपी सांप्रदायिक पार्टी थी।
अचानक किसी एक शख्स
को निशाना बनाकर नीतीश सेकुलर नहीं बन सकते। अगर नरेन्द्र मोदी सांप्रदायिक है तो
लालकृष्ण आडवाणी क्या हैं, क्या जिन्ना को उनके मजार पर जाकर सेकुलर कह देने से
कोई व्यक्ति सेकुलर हो जाएगा। अगर आडवाणी सांप्रदायिक नहीं हैं तो फिर नीतीश को यह
मानना ही पड़ेगा कि 1992 में बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना जायज है। इसलिए या तो
भाजपा पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष पार्टी है, या फिर पूरी पार्टी सांप्रदायिक है। किसी पार्टी के भीतर आप यह नहीं कह सकते
कि फलां सेकुलर है और फलां सांप्रदायिक या हम फलां के साथ जायेंगे और फलां के साथ
नहीं जायेंगे।
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इतना ही कॉमप्लेक्स व्यक्तित्व है दोनों का... साभारः इंटरनेट |
ये कुछ सवाल है
जिसपर नीतीश को सफाई देनी चाहिए। उन्हें यह बताना चाहिए कि वह पार्टी के रुप में भाजपा
को सांप्रदायिक मानते हैं या सेकुलर? सच्चाई यह है कि वोटों की जुगाड़ में नीतीश यहां तक तर्क-कुतर्क गढ़ते हैं कि
उसे नरेंद्र मोदी स्वीकार नहीं हैं लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री बनाने वाली, साथ खड़ी होने एवं शह देने वाली या गुजरात
दंगों से थोड़ा पीछे लौटें तो बाबरी मस्जिद गिराने वाली पार्टी मंजूर है। क्या
नीतीश यह मानते हैं कि बीजेपी नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख
बनाकर सांप्रदायिक हुई है और राम मंदिर आंदोलन, बाबरी मस्जिद विध्वंस या फिर गुजरात में दंगें कराकर सेकुलर बन गई थी? क्या नीतीश को
यह भी बताने की जरूरत है कि भाजपा का तो जन्म ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गर्भ से हुआ है जो सिर्फ सांप्रदायिकता और
नफरत की राजनीति करते हुए फली-फूली है।
लेकिन मामला इतना सहज नहीं बल्कि काफी पेचीदा है। नीतीश कुमार ने राज्य की जनता से जो भी वायदे किए थे उसका छोटा
हिस्सा भी पूरा करने में नाकाम रहे हैं। वह लालू यादव का छाया बनकर उभरे हैं जो 15
वर्षों के अपने शासन काल की असफलता छिपाने के लिए जगन्नाथ मिश्रा को
गाली देकर काम चलाते रहे। नीतीश पिछले आठ वर्षों से अधिक समय से लालू यादव को गाली देकर यही काम करते रहे
हैं। अब जनता उनसे हिसाब मांगना शुरु कर चुकी है। महाराजगंज का चुनाव परिणाम इसका
प्रमाण है। नीतीश को लगता है कि यही वह वक्त है जब नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाकर
भारतीय राजनीति में जयप्रकाश नारायण (जेपी) या विश्वनाथ प्रताप सिंह
(वीपी) की जगह ले ली जाए। इसके लिए फेडरल फ्रंड बनाने की बात हो रही है जिसमें
ममता बनर्जी और नवीन पटनायक तो रहेगें ही, नीतीश ने भी सहमति दे दी है। अगर ऐसा हो जाता है तो सचमुच उनकी चाल सफल मानी जाएगी।
लेकिन इसमें एक रोड़ा है। नीतीश
ने अपने विधायकों और सांसदों को जितना जलील किया है उससे ज्यादातर विधायक-सांसद नीतीश से बहुत नाराज
हैं। नौकरशाही बिहार में हावी है, भ्रष्टाचार अपने पीक पर है। विधायक की तो छोड़िए सांसदों के साथ बीडीओ ठीक
से पेश नहीं आता है। अगर कोई व्यक्ति इस नाराजगी को हवा दे दे तो जनतादल यू में
फूट सुनिश्चित है। पहले के दलबदल कानून के अनुसार जदयू को तोड़ने के लिए 40 विधायकों की जरूरत होती, लेकिन अब कानूनी रुप से इसकी संख्या 80 होनी चाहिए। हालांकि तकनीकि रुप से आधे से अगर एक भी अधिक विधायक हों तो पार्टी टूट सकती है। वैसे खबर तो यहां
तक है कि उनके कम से कम 72 विधायक ऐसे हैं जो इस गठबंधन को तोड़े जाने के खिलाफ
थे। अगर ऐसा हो गया तो नीतीश मुंह के बल गिरेगें। ऐसा होना भले ही मुश्किल हो लेकिन असंभव तो कतई नहीं है, क्योंकि शरद यादव बिहार में डटे हुए हैं। अगर नीतीश फेडरल मोर्चा के साथ जाते हैं तो उनके लिए बचा क्या रह जाएगा!
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