जितेन्द्र कुमार
बचपन से एक कहावत सुनते आए हैं। गाय जब पुंछ
उठाती है तो गोबर करती है। लगभग यही बात योजना आयोग पर लागू होती है। योजना आयोग
जब कभी गरीब और गरीबी पर कोई बयान देता है विवादास्पद ही नहीं हास्यास्पद ही होता
है। योजना आयोग का हालिया बयान ये है कि शहरों में लगभग 14 (13.7) और गावों में
26(25.7) फीसदी गरीबी में कमी आई है।
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मोंटेक सिंह अहलूवालिया की नजर अपनी रिक्शा पर फ्रीज लेकर जानेवाला व्यक्ति अमीर हो सकता है! |
आयोग का मानना है कि शहर और गांव में क्रमशः 1000 और 816 रुपए
प्रतिमाह कमाने वाले व्यक्ति गरीबी रेखा से उपर है अर्थात जो व्यक्ति प्रतिदिन शहर
में 33.30 पैसे और गांव में 27.20 पैसे कमा रहा है, उसे गरीब की श्रेणी में
नहीं रखा जा सकता है। योजना आयोग का यह भी दावा है कि पिछले दो साल में यानि वर्ष
2009-10 की तुलना में आज शहरी गरीबों में 7 फीसदी और गांवों के गरीबों में 8 फीसदी
की कमी आई है। जबकि हकीकत ये है कि इस दौरान भारत का लगभग सभी हिस्सा कमोवेश सूखा, बाढ़ और
बेरोजगारी के चपेट में रहा है।
हालांकि यह भी सही है कि हर देश में एक उचित जीवन
स्तर जीने के लिए एक जरूरी न्यूनतम आय को वहां की गरीबी रेखा कहा जाता है। उदाहरण
के लिए अमरीकी परिभाषा के अनुसार जो व्यक्ति वहां गरीब माना जाएगा भारत में वह
अमीर की श्रेणी में गिना जाएगा। इसलिए व्यवहारिक रूप से विकसित देशों की गरीबी
रेखा विकासशील देशों की गरीबी रेखा से काफी उंची है।
यह कोई पहली बार नहीं हुआ है जब योजना आयोग ने
ऐसा किया है। इससे पहले योजना आयोग ने 2011 में सुप्रीम
कोर्ट को हलफनामा देकर बताया था कि शहरों में दिन भर में 32 रुपये और गांवों
में 25 रुपये से अधिक
खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। उस हलफनामे पर जबरदस्त हंगामा हुआ था और तब
जाकर आम लोगों को यह बात समझ में आ गई थी कि सरकार के गरीबी निवारण का तरीका इतना खराब क्यों है?
गरीबी रेखा के उसी हलफनामे के आधार पर योजना आयोग ने ताजा दावा करते
हुए कहा है कि पिछले एक दशक में देश के भीतर गरीबी के स्तर में महत्वपूर्ण गिरावट
हुई है। राष्ट्रीय सेंपल सर्वे (एनएसएसओ) के आधिकारिक आंकड़ों के आधार सरकार यह
प्रमाणित करना चाहती है कि न सिर्फ पिछले 10 वर्षो में, बल्कि दो वर्षों
में भी गरीबों की संख्या में अच्छी-खासी गिरावट आई है। आयोग के इस आंकड़े का मतलब
यह भी है कि सरकार इस बात को साबित करना चाहती है कि इस दौरान करोड़ों गरीबों की
जिंदगी में सकारात्मक परिवर्तन आया है, उनका जीवन स्तर पहले से
बेहतर हुआ है, जबकि इससे कड़वी हकीकत यह है कि उनमें से अधिकांश गरीब अभी भी बदहाली
में जीवन यापन कर रहे हैं।
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मोंटेक सिंह इस गरीब किसान को बड़े जमींदार की संज्ञा दे सकते हैं! |
वास्तव में समस्या की जड़ यह भी है कि गरीबी के आकलन का तरीका और
गरीबी रेखा को किस स्तर पर तय किया जाता है? 2011 में तेंदुलकर
कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर गरीबी का निर्धारण किया गया था। तेजी से गरीबी घटने
के हालिया दावे के पीछे भी उसी मानदंड को आधार बनाया गया है। कई दशकों से गरीबी
रेखा की इसी तरह की सतही व्याख्या मानक रही है और देश की तमाम योजनाओं और बजट का
आबंटन भी बार-बार उसी आधार पर होता रहा है। इस बार भी उपभोग, आय और खर्च पर
एनएसएस के जुटाए आकड़ों के आधार पर योजना आयोग ने गरीबी का आकलन कर दिया है।
2011 में सुप्रीम कोर्ट के सवाल पर योजना आयोग
ने जवाब दिया कि एक दिन में गांव और शहर में क्रमश: 25 और 32 रुपये के निजी
खर्च से 'भोजन, शिक्षा और
स्वास्थ्य जैसी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं।' विशेषज्ञ
अर्थशास्त्रियों की असहमति तेंदुलकर कमेटी की उस गणना से है जिसमें उन्होंने
जीवनयापन के लिए गरीब के किए गए खर्चे को 'पर्याप्त' बताया है। दुखद यह है कि आयोग अपनी बात को साबित
करने के लिए विचित्र तर्क का सहारा लिया। एस आर हाशिक की अध्यक्षता वाली कमेटी ने
भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर औसत खर्च का आकलन
किया और निष्कर्ष निकाल दिया कि आधी आबादी इस निश्चित रकम से कम खर्च करती है।
उसके बाद उन्होंने इस औसत खर्च को 'पर्याप्त' बता दिया।
उन्होंने यह भी पाया कि स्वास्थ्य पर प्रतिदिन एक रुपये से भी कम खर्च हो रहा है
(योजना आयोग के इस आकलन को अगर विस्तार दें तो यह भी कहा जा सकता है कि
हिन्दुस्तान में लोग बीमार ही नहीं पड़ते हैं इसलिए इतना कम खर्च है!)। जबकि हकीकत यह है कि एक रुपया में
सस्ती से सस्ती दवा भी खरीदी नहीं जा सकती है। तकनीकि शब्दावली में यह तथ्यों के
बदले तुलनात्मक रूप से किसी चीज का मूल्य निर्धारण (वैल्यू जजमेंट) करना है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि कमेटी के इस रिपोर्ट को सरकार ने ‘सहर्ष’ स्वीकार कर लिया कि इतने कम खर्च पर गरीब
जिंदा रह सकता है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक और गरीबी पर काम करने वाले
विद्वानों का मानना है कि जिस रूप में पूरे देश में मंहगाई बढ़ी है उसको ध्यान में
रखकर सरकार सिर्फ गरीबों का मजाक उड़ा रही है। उन्होंने अपने अध्ययन में इस बात का
विस्तार से जिक्र किया है कि वर्ष 2009-10 से लोगों को जिन्दगी जीने में कितनी
परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने अपने अध्ययन में यह भी बताया है कि
खाने-पीने को छोड़ दिया जाय तो लोगों को जीने के लिए अनिवार्य जरूरतों के खर्चे
में बेतहाशा वृद्धि हुई है जिसमें दवा, घर का किराया, आवाजाही, और शिक्षा जैसी
मूलभूत जरूरतें शामिल है। उत्सा पटनायक के अनुसार इसका परिणाम यह हुआ है कि
स्वस्थ्य रहने के लिए गांव के 75 (75.5) फीसदी लोगों को प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति
निर्धारित 2200 कैलोरी नहीं खा पाता है जबकि शहरों में 73 फीसदी लोगों को प्रति
दिन प्रतिव्यत्ति 2100 कैलोरी नहीं मिलता है।
उत्सा पटनायक मानती हैं कि वर्ष 2004-05 में शहरी और गांव के गरीबों
की संख्या क्रमशः 64.5 और 69.5 फीसदी थी। उनके अनुसार “पिछले सात-आठ वर्षों में जिस रुप में मंहगाई और बेरोजगारी बढ़ी है
अगर उसे ध्यान में रखा जाए तो आज की स्थिति ज्यादा भयावह होने की आशंका है।” दरअसल जिस रुप
में सरकारी अस्पतालों और सरकारी शिक्षण संस्थानों का क्षरण हुआ है उससे आम लोगों
को पहले की तुलना में कई गुणा अधिक खर्च करना पड़ रहा है जबकि जरूरत की चीजें
खासकर पेट्रोलियम पदार्थ, बिजली, गैस जैसे जरूरी के सामानों की आसमान छूटी कीमत से हर कोई परेशान
है। इतना ही नहीं खाद्यान्न पदार्थों की बढ़ती कीमत से भी लोगों को प्रति दिन कम
कैलोरी मिलता है।
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मनमोहन-मोंटेक की जोड़ी ने पिछले नौ वर्षों में देश खासकर गरीबों का सत्यानाश कर डाला है। |
इस विरोधाभास को देखिए कि योजना आयोग का मानना है कि शहर में रहकर
33.30 पैसे खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है जबकि हमारे सरकार की ‘सहयोगी संस्था’ विश्व बैंक तक का मानना है कि प्रतिदिन एक डॉलर
पर गुजर करने वाले लोग गरीब हैं। आज के बाजार में डॉलर की कीमत लगभग साठ रुपए है
जबकि इसे विश्व बैंक ने 2008 में संशोधित कर 1.25 डॉलर तय कर
दिया। अर्थात विश्व बैंक के अनुसार ही प्रतिदिन 75 रुपए पर जीने वाला व्यक्ति घोर
गरीबी की चपेट में है लेकिन हमारी सरकार विश्व बैंक के निर्धारित मापदंड से आधी से
भी कम रकम को गरीबी रेखा से उपर मानती है।
वास्तव में सरकारी आकलन सवाल खड़े करता है जिसके आधार पर गरीबी के
घटने संबंधी ताजा अनुमान व्यक्त किया जा रहा है। दूसरी तरफ मध्य वर्ग के जीवन स्तर
की आकांक्षाएं वैश्विक मानदंडों के समतुल्य पहुंच रही हैं लेकिन गरीबों के लिए सस्ते खाने, खराब गुणवत्ता
वाली शिक्षा, खुले में शौच, दूषित पेयजल, खस्ताहाल शहरी
आवास और लगभग नगण्य सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को पर्याप्त मान रहे हैं। इस तर्क से
तो फिर पहले से ही देश से गरीबी दूर हो रही है, सरकार और
मध्यवर्ग दोनों को ही सामूहिक रूप से सोचना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति को बेहतर
जीवन जीने का अधिकार है। गरीबी का पैमाना इससे ही तय किया जाना चाहिए।
सरकार ने गरीबी के अभिशाप का उपहास उड़ाते हुए गरीब को निर्धारित करने
वाली नई परिभाषा गढ़ी है। दुखद ये है कि खुद को समाज के गरीब वर्ग की हितैषी बताने
वाली यूपीए की सरकार ने गरीबों की गुरबत का मखौल उड़ाते हुए उनकी आय में एक रुपये
का इजाफा दिखाकर 17 करोड़ लोगों को
इस श्रेणी से बाहर कर दिया है।
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